ashtavakra gita

 

 

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प्रथम अध्याय | First Chapter

 

 

Ashtavakra Gita Hindi

 

 

एक समय मिथिला के राजा जनक के मन में पूर्व पुण्य के प्रभाव से इस प्रकार जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि, इस असार संसार रूपी बंधन से किस प्रकार मुक्ति होगी और तदनंतर उन्होंने ऐसा भी विचार किया कि, किसी ब्रह्मज्ञानी गुरु के समीप जाना चाहिये, इसी समय उन को ब्रह्मज्ञान के मानो समुद्र परम दयालु श्री अष्टावक्रजी मिले परन्तु इन मुनि की टेढ़ी – मेढ़ी वक्राकार आकृति को देखकर राजा जनक के मन में यह संदेह हुआ कि, यह ब्राह्मण अंत्यत ही कुरूप है। तब दूसरे के मन की बात जानने वाले अष्टावक्र जी ने दिव्यदृष्टि के द्वारा राजा के मन की बात जानकर राजा जनक से कहा कि, हे राजन् ! देह दृष्टि से न देख कर यदि आत्मदृष्टि से देखोगे तो भले ही यह देह टेढ़ा है परंतु इस में स्थित आत्मा टेढ़ा नहीं है। जिस प्रकार नदी देखने में टेढ़ी होती है परंतु उस का जल टेढ़ा नहीं होता है, जिस प्रकार गन्ना दिखने में  टेढ़ा होता है परंतु उस का रस टेढ़ा नहीं है। उसी प्रकार यद्यपि पांचभौतिक यह देह टेढ़ा है, परंतु अंतर्यामी आत्मा टेढ़ा नहीं है। किंतु आत्मा असंग, निर्विकार, व्यापक, ज्ञानघन, सचिदानंदस्वरूप, अखंड, अच्छेद्य, अभेद्य, नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्तस्वभाव है। इस कारण हे राजन् ! तुम देहदृष्टि को त्यागकर आत्मदृष्टि करो । परम दयालु अष्टावक्रजी के इस प्रकार के वचन सुनने से राजा जनक का मोह तत्काल दूर हो गया और राजा जनक ने मन में विचार किया कि मेरे सब मनोरथ सिद्ध हो गये, मैं अब इनको ही गुरु बनाऊंगा क्योंकि यह महात्मा ब्रह्मविद्या के समुद्ररूप है, जीवन्मुक्त हैं, अब इन से अधिक ज्ञानी मुझे कौन मिलेगा? इसलिए इन से ही गुरुदीक्षा लेकर इनकी ही शरण लेना योग्य है। इस प्रकार विचार कर राजा जनक अष्टावक्रजी से इस प्रकार बोले कि, हे महात्मन् ! मैं संसारबंधन से छूटने के निमित्त आप की शरण लेने की इच्छा करता हूं, अष्टावक्रजी ने भी राजा जनक को अधिकारी समझकर अपना शिष्य बना लिया, तब राजा जनक अपने चित्त के संदेहों को दूर करने के निमित्त और ब्रह्मविद्या के श्रवण करने की इच्छा कर के अष्टावक्रजी से पूंछने लगे।

 

जनक उवाच

कथं ज्ञानमवाप्नोति,कथं मुक्तिर्भविष्यति।

वैराग्य कथं प्राप्तमेतद ब्रूहि मम प्रभो॥ १॥

 

वयोवृद्ध राजा जनक, बालक अष्टावक्र से पूछते हैंहे प्रभु ! ज्ञान की प्राप्ति कैसे होती है ? मुक्ति कैसे प्राप्त होती है ? वैराग्य कैसे प्राप्त किया जाता है ? ये सब मुझे बताएं॥१॥         

 

अष्टावक्र उवाच

मुक्तिमिच्छसि चेत्तात्, विषयान विषवत्त्यज।
क्षमार्जवदयातोष, सत्यं पीयूषवद्भज॥ २॥

 

श्री अष्टावक्र उत्तर देते हैंयदि आप मुक्ति चाहते हैं तो अपने मन से विषयों (वस्तुओं के उपभोग की इच्छा) को विष की तरह त्याग दीजिये। क्षमा, सरलता, दया, संतोष तथा सत्य का अमृत की तरह सेवन कीजिये॥२॥

 

भावार्थ-

इस प्रकार जब राजा जनक ने प्रश्न किया तब ज्ञानविज्ञान संपन्न परम दयालु अष्टावक्र मुनि ने विचार किया कि, यह पुरुष तो अधिकारी है और संसार बंधन से मुक्त होने की इच्छा से मेरे निकट आया है, इस कारण इस को साधनचतुष्टयपूर्वक ब्रह्मतत्व का उपदेश करूं क्योंकि साधनचतुष्टय के बिना करोड़ों उपाय करने से भी ब्रह्मविद्या फलीभूत नहीं होती है । इस कारण शिष्य को सर्वप्रथम साधनचतुष्टय का उपदेश करना योग्य है और साधनचतुष्टय के बाद ही ब्रह्मज्ञान के विषय की इच्छा करनी चाहिये।

इस प्रकार विचार कर अष्टावक्राजी बोले कि-हे तात ! हे शिष्य ! जिस समय भी संपूर्ण अनर्थों से मुक्ति और परमानंद प्राप्ति की इच्छा हो  तब शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध इन पांचों विषयों को त्याग दे। ये पांच विषय नेत्र, जिह्वा , कर्ण, त्वचा और नासिका इन पांच ज्ञानेंद्रियों के हैं। ये संपूर्ण इन्द्रिय विषय जीव के बंधन हैं, इन से बंधा हुआ जीव उत्पन्न होता है और मरता है तब बड़ा दुःखी होता है। जिस प्रकार विष भक्षण करनेवाले पुरुष को दुःख होता है, उसी प्रकार शब्दादिविषयभोग करने वाला पुरुष दुःखी होता है। अर्थात् शब्दादि विषय महा अनर्थ का मूल है उन विषयों को तू त्याग दे। अभिप्राय यह है कि, देह आदि के विषय में “मैं हूं, मेरा है” इत्यादि आभास मत कर । इस प्रकार मैंने अभी बाह्य इंद्रियों को दमन करने का साधन बताया। इस प्रकार का साधन करने वाले मनुष्य को ‘दम’ नामक प्रथम साधन की प्राप्ति होती है और अपने अंतःकरण को वश में करने वाले को ‘शम’ नामक दूसरे साधन की प्राप्ति होती है। जिस का मन अपने वश में हो जाता है उस का मन ब्रह्माकार हो जाता है । वह अवस्था  “निर्विकल्प समाधि” कही जाती है, उस निर्विकल्प समाधि की स्थिति में  “क्षमा” अर्थात सब सह लेना , “आर्जव” अर्थात अविद्यारूप दोष से निवृत्ति रखना , “दया” अर्थात बिना कारण ही पराया दुःख दूर करने की इच्छा, “तोष” अर्थात सदा संतुष्ट रहना, “सत्य” अर्थात त्रिकाल में एकरूपता इन पांच सात्विक गुणों का सेवन करे। जिस प्रकार कोई पुरुष अमृततुल्य औषधि सेवन करे और उस औषधि के प्रभाव से उस के संपूर्ण रोग दूर हो जाते हैं, उसी प्रकार जो पुरुष अमृततुल्य इन पांच गुणों को सेवन करता है, उस के जन्म मरण रुपी रोग दूर हो जाते हैं अर्थात वह बार – बार जन्म और मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है । इस संसार में जिस किसी को भी मुक्ति की इच्छा हो वह विषयों का त्याग कर दे। विषयों का त्याग करे बिना मुक्ति कदापि नहीं होती है। मुक्ति अनेक दुःखों की दूर करनेवाली और परमानंद की देनेवाली है इस प्रकार अष्टावक्रमुनिने प्रथम शिष्य को विषयों को त्यागने का उपदेश दिया ॥२॥

 

पृथ्वी जलं नाग्निर्न वायुर्द्यौर्न वा भवान्।
एषां साक्षिणमात्मानं चिद्रूपं विद्धि मुक्तये॥ ३॥

 

आप पृथ्वी हैं, जल, अग्नि, वायु अथवा आकाश ही हैं। मुक्ति के लिए इन तत्त्वों के साक्षी, चैतन्यरूप आत्मा को जानिए॥३॥

 

भावार्थ –

अब अष्टावक्र मुनि जनक जी को मुक्ति का उपदेश करते हैं। जनक जी थोड़ी शंका के साथ पूछते हैं कि हे गुरुदेव ! पंच भूत का शरीर ही आत्मा है और पंचभूतों के ही पांच विषय हैं तो इन पंचभूतों का जो स्वभाव है उस का कदापि त्याग नहीं हो सकता, क्योंकि पृथ्वी से गंध को या गंध से पृथ्वी को अलग नहीं कर सकते हैं। वे दोनों एक रूप होकर रहते हैं। इसी प्रकार वायु और स्पर्श, रस और जल, शब्द और आकाश ,अग्नि और रूप है जो एक रूप हो कर रहते हैं। शब्दादि पांच विषयों का त्याग तभी हो सकता है जब पंच भूतों का त्याग होता है और यदि पंच भूत का त्याग किया जाये तो शरीर का त्याग हो जायेगा। फिर उपदेश कौन ग्रहण करेगा ? और कौन मोक्ष का सुख भोगेगा ? अर्थात् विषय का त्याग तो कभी नहीं हो सकता।

अष्टावक्रजी उत्तर देते हैं- पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश तथा इन के धर्म जो शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध हैं वो तू नहीं है । इस पांचभौतिक शरीर के विषय में तू अज्ञानता वश अहं भाव अर्थात मैं हूं, मेरा है इत्यादि  मानता है । इन का त्याग कर अर्थात् इस शरीर के अभिमान का त्याग कर दे और विषयों को ये जानकर त्याग कर दे कि ये आत्मा के धर्म नहीं हैं ।

अब जनक जी इस विषय में फिर शंका करते हैं कि, हे गुरु ! मैं गोरा हूँ , मैं काला हूँ, मैं कुरूप हूँ, मैं रूपवान हूँ, मैं पुष्ट हूँ इस प्रकार का अनुभव इस पांचभौतिक शरीर में अनादि काल से सब प्राणियों को होता है। फिर आपके कथनानुसार कि ‘तू देह नहीं है’ तो इस में क्या रहस्य है ?

तब अष्टावक्र बोले कि, हे जनक ! अविवेकी मनुष्य को इस प्रकार प्रतीति होती है। विवेकदृष्टि से तू देह आदि इन्द्रियों का द्रष्टा है और देह इंद्रियादि से पृथक है। जिस प्रकार घड़े को देखने वाला पुरुष घड़े से अलग होता है, वह घड़े का दर्शक होता है । उसी प्रकार आत्मा भी सर्व दोषरहित है और सब का साक्षी है। आत्मा चैतन्यस्वरूप है । 

जनक जी पूछते हैं – हे गुरो ! जब हम चैतन्यरूप आत्मा को जान जाते है तो उसका फल होता है वो कहिये ?

इस के उत्तर में अष्टावक्रजी कहते हैं कि, साक्षी और चैतन्य स्वरूप आत्मा को जानने से जीव जीवन्मुक्तपद को प्राप्त होता है।यही आत्मज्ञान का फल है।वेदांतशास्त्र के अनुसार आत्मज्ञान ही मुक्ति है।॥३॥

 

यदि देहं पृथक् कृत्य चिति विश्राम्य तिष्ठसि।
अधुनैव सुखी शान्तो बन्धमुक्तो भविष्यसि॥ ४॥

 

यदि आप स्वयं को इस शरीर से अलग करके, चेतना में विश्राम करें तो तत्काल ही सुख, शांति और बंधन मुक्त अवस्था को प्राप्त होंगे॥४॥

[हे शिष्य ! यदि तू देह तथा आत्मा को अपने विवेक से अलग अलग जानेगा और आत्मा के विषय में विश्राम कर के चित को एकाग्र करेगा तो तू इस वर्तमान में ही मनुष्यदेह के विषय में सुख तथा शान्ति को प्राप्त होगा अर्थात् बंधमुक्त हो कर कर्तृत्व ( कर्तापना) भोक्तृत्व ( भोक्तापना) आदि अनेक अनर्थों से छूट जावेगा॥ ४ ॥]

 

त्वं विप्रादिको वर्ण: नाश्रमी नाक्षगोचर:
असङगोऽसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव॥ ५॥

 

आप ब्राह्मण आदि सभी जातियों अथवा ब्रह्मचर्य आदि सभी आश्रमों से परे हैं तथा आँखों से दिखाई पड़ने वाले हैं  आप निर्लिप्त, निराकार और इस विश्व के साक्षी हैं, ऐसा जान कर सुखी हो जाएँ   

 

जनक जी प्रश्न करते हैं कि, हे गुरु ! मैं तो वर्णाश्रम के धर्म में हूँ । इस कारण मुझे वर्णाश्रम कर्म करना योग्य है अर्थात् वर्णाश्रम के कर्म करने से आत्मा के विषय में विश्राम कर के मुक्ति किस प्रकार होगी ? मैं ब्राह्मण हूँ , मैं संन्यासी हूँ इत्यादि प्रत्यक्ष है। इस कारण आत्मा ही वर्णाश्रमी है। तब गुरु कहते हैं कि, तू ब्राह्मण आदि नहीं है, तू ब्रह्मचारी आदि किसी भी आश्रम में नहीं है।तू असंग अर्थात् देहादिक उपाधि यथा आकाररहित विश्व का साक्षी आत्मस्वरूप है, अर्थात् तुझ में वर्णाश्रमपना नहीं है, इस कारण कर्मों के विषय में आसक्ति न कर के चैतन्यरूप आत्मा के विषय में विश्राम कर के परमानंद को प्राप्त हो ॥५॥

 

धर्माधर्मौ सुखं दुखं मानसानि ते विभो।
कर्तासि भोक्तासि मुक्त एवासि सर्वदा॥ ६॥

 

धर्म, अधर्म, सुख, दुःख मस्तिष्क से जुड़ें हैंसर्वव्यापक आप से नहीं। आप करने वाले हैं और भोगने वाले हैं, आप सदा मुक्त ही हैं   

 

एको द्रष्टासि सर्वस्य मुक्तप्रायोऽसि सर्वदा।
अयमेव हि ते बन्धो द्रष्टारं पश्यसीतरम्॥७॥

 

आप समस्त विश्व के एकमात्र दृष्टा हैं, सदा मुक्त ही हैं, आप का बंधन केवल इतना है कि आप दृष्टा किसी और को समझते हैं   

 

[जनक जी पूछते हैं कि शुद्ध, एक, नित्य मुक्त ऐसा जो आत्मा है उस का बंधन किस कारण से होता है जिस बंधन से छूटने का बड़े – बड़े योगी पुरुष यत्न करते हैं ?

गुरु समाधान करते हैं कि, हे शिष्य ! तू अद्वितीय , सर्वसाक्षी , सर्वदा मुक्त है। तू जो द्रष्टा को द्रष्टा न जानकर अन्य जानता है यही बंधन है । सर्व प्राणियों में विद्यमान आत्मा एक ही है और अभिमानी जीव के जन्मजन्मांतर ग्रहण करने पर भी आत्मा सर्वदा मुक्त है ।

इस पर जनक जी प्रश्न करते हैं कि, फिर संसार बंधन क्या वस्तु है ?

इस पर गुरु कहते हैं कि, यह प्रत्यक्ष देहाभिमान ही संसारबंधन है अर्थात् यह कार्य करता हूँ , यह भोग करता हूं इत्यादि अज्ञान ही संसारबंधन है, वास्तव में आत्मा निर्लेप है, तथापि देह और मन के भोग को आत्मा का भोग मानकर बद्धसा हो जाता है ॥७॥]

 

अहं कर्तेत्यहंमान महाकृष्णाहिदंशितः।
नाहं कर्तेति विश्वासामृतं पीत्वा सुखं भव॥८॥

 

अहंकार रूपी महासर्प के प्रभाव वश आपमैं कर्ता हूँऐसा मान लेते हैं  मैं कर्ता नहीं हूँ‘, इस विश्वास रूपी अमृत को पीकर सुखी हो जाइये   

[ ‘मैं कर्ता हूं’ इस प्रकार अहंकार रूप महाकाल सर्प से तू काटा हुआ है । ‘मैं कर्ता नहीं हूं’ इस प्रकार विश्वासरूप अमृत पीकर सुखी हो । तू आत्माभिमानरूप सर्प के विष से ज्ञानरहित हआ है। यह बंधन जितने दिनों तक रहेगा तब तक किसी प्रकार सुख की प्राप्ति नहीं होगी। जिस दिन तू यह जानेगा कि, मैं देहादि कोई वस्तु नहीं हूं, मैं निर्लिप्त हूं उस दिन किसी प्रकार का मोह स्पर्श नहीं कर सकेगा ॥८॥]

 

एको विशुद्धबोधोऽहं इति निश्चयवह्निना।
प्रज्वाल्याज्ञानगहनं वीतशोकः सुखी भव॥९॥

 

मैं एक, विशुद्ध ज्ञान हूँ, इस निश्चय रूपी अग्नि से गहन अज्ञान वन को जला दें, इस प्रकार शोक रहित होकर सुखी हो जाएँ   

 

[ जनक जी प्रश्न करते हैं कि , आत्मज्ञानरूपी अमृत पान किस प्रकार करूं ?

अष्टावक्र जी समाधान करते हुए कहते हैं कि हे शिष्य ! मैं एक हूं और विशुद्धबोध और स्वप्रकाशरूप हूं। निश्चयरूपी अग्नि से अज्ञानरूपी वन को भस्म कर के शोक, मोह, राग, द्वेष, प्रवृत्ति, जन्म, मृत्यु इन के नाश होने पर शोकरहित होकर परमानंद को प्राप्त हो ॥९॥]

 

यत्र विश्वमिदं भाति कल्पितं रज्जुसर्पवत्।
आनंद परमानन्दः बोधस्त्वं सुखं चर १०॥

 

जहाँ ये विश्व रस्सी में सर्प की तरह अवास्तविक लगे, उस आनंद, परम आनंद की अनुभूति करके सुख से रहें    

 

[जनक जी शंका करते हुए कहते हैं कि, आत्मज्ञान से अज्ञानरूपी वन के भस्म होने पर भी सत्यरूप संसार की ज्ञान से निवृत्ति न होने के कारण शोक रहित किस प्रकार होऊंगा ?

तब गुरु समाधान करते हैं कि, हे शिष्य ! जिस प्रकार रस्सी के होने से सर्प की प्रतीति होती है और प्रकाश होने से उस का भ्रम दूर हो जाता हैं । उसी प्रकार इस जगत् की प्रतीति अज्ञान कल्पित है जो ज्ञान होने से नष्ट हो जाती है। तू ज्ञान रूप चैतन्य आत्मा है, इस कारण सुखपूर्वक विचर । जिस प्रकार स्वप्न में किसी पुरुष को सिंह मारता है तो वह बड़ा दुःखी होता है परंतु निद्रा के दूर होनेपर उस कल्पित दुःख का जिस प्रकार नाश हो जाता है उसी प्रकार तू ज्ञान से अज्ञान का नाश कर के सुखी हो ।

जनक जी प्रश्न करते हैं कि, हे गुरो ! ये दुःखरूप जगत् अज्ञान के कारण प्रतीत होता है और ज्ञान से उस का नाश हो जाता है परंतु सुख किस प्रकार प्राप्त होता है ?

तब गुरु समाधान करते हैं कि हे शिष्य ! जब दुःखरूपी संसार के नाश होने पर आत्मा स्वभाव से ही आनंदस्वरूप हो जाता है। आत्मा का आनंद परम उत्कृष्ट और अत्यंत अधिक है ॥१०॥]

 

मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि।
किवदन्तीह सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवे त्   

 

स्वयं को मुक्त मानने वाला मुक्त ही है और बद्ध मानने वाला बंधा हुआ ही है, यह कहावत सत्य ही है कि जैसी बुद्धि होती है वैसी ही गति होती है  ११ 

 

[शिष्य शंका करता है कि, यदि संपूर्ण संसार रस्सी के रूप में सर्प के समान कल्पित है परन्तु वास्तव में आत्मा तो परमानंदस्वरूप है तो बंधन और मोक्ष किस प्रकार होता है ?

तब गुरु ने समाधान किया कि, हे शिष्य ! जिस पुरुष को गुरु की कृपा से यह निश्चय हो जाता है कि, मैं मुक्तरूप हूँ वही मुक्त है और जिस के ऊपर सद्गुरु की कृपा नहीं होती है और जो यह मानता है कि, मैं अल्पज्ञ और संसारबंधन में बंधा हुआ हूं वही बद्ध है, क्योंकि बंधन और मोक्ष अभिमान से ही उत्पन्न होते है अर्थात् मरण समय में जैसा अभिमान होता है वैसी ही गति होती है यह बात श्रुति, स्मृति, पुराण और ज्ञानी पुरुष प्रमाण मानते हैं  ॥११॥]

 

आत्मा साक्षी विभुः पूर्ण एको मुक्तश्चिदक्रियः।
असंगो निःस्पृहः शान्तो भ्रमात्संसारवानिव॥१२॥

 

आत्मा साक्षी, सर्वव्यापी, पूर्णएक , मुक्तचेतन, अक्रिय, असंगइच्छा रहित एवं शांत है। भ्रम वश ही ये सांसारिक प्रतीत होती है  १२ 

 

[अज्ञानवश लोग देह को आत्मा समझ बैठते हैं । इस कारण वह संसारी प्रतीत होता है परंतु वास्तव में आत्मा संसारी नहीं है, क्योंकि आत्मा तो साक्षी है और अहंकारादि अंत:करण के धर्म को जाननेवाला है और संपूर्ण व्यापक है, एक अर्थात् तीन भेदों से रहित है, मुक्त अर्थात् माया के बंधन से रहित, चैतन्यरूप, अक्रिय, असंग, निस्पृह अर्थात् विषय की इच्छा से रहित है और शान्त अर्थात् प्रवृत्ति निवृत्ति रहित है इस कारण वास्तव में आत्मा संसारी नहीं है ॥ १२॥]

 

कूटस्थं बोधमद्वैतमात्मानं परिभावय।
आभासोऽहं भ्रमं मुक्त्वा भावं बाह्यमथान्तरम्॥१३॥

 

अपरिवर्तनीय, चेतन अद्वैत आत्मा का चिंतन करें औरमैंके भ्रम रूपी आभास से मुक्त होकर, बाह्य विश्व की अपने अन्दर ही भावना करें  १३ 

[मैं देहरूप हूं, स्त्री पुत्र आदि मेरे हैं, मैं सुखी हूँ , मैं दुःखी हूं यह अनादि काल का अज्ञान केवल एक बार आत्मज्ञान का उपदेश सुन लेने  से दूर नहीं हो सकता है। इस कारण श्रवण मनन आदि बारंबार करने चाहिये।अष्टावकमुनि वासनाओं का त्याग करते हुए बारंबार अद्वैत भावना का उपदेश करते हैं कि, मैं अहंकार नहीं हूं, मैं देह नहीं हूं, स्त्री पुत्र आदि मेरे नहीं हैं, मैं सुखी नहीं हूं, मैं दुःखी नहीं हूं, मैं मूढ नहीं हूं । इन बाह्य और आतंरिक भावनाओं का त्याग कर के निर्विकार बोधरूप अद्वैत आत्मस्वरूप का विचार कर ॥१३॥]

 

देहाभिमानपाशेन चिरं बद्धोऽसि पुत्रक।
बोधोऽहं ज्ञानखंगेन तन्निष्कृत्य सुखी भव॥१४॥

 

हे पुत्र! बहुत समय से आपमैं शरीर हूँइस भाव बंधन से बंधे हैं, स्वयं को अनुभव कर, ज्ञान रूपी तलवार से इस बंधन को काटकर सुखी हो जाएँ  १४ 

[अनादि काल का यह देहाभिमान एक बार उपदेश करने से निवृत्त नहीं होता है इस कारण गुरु उपदेश करते हैं कि, हे शिष्य ! अनादि काल से इस समय तक देहाभिमान रूपी फाँसी से तू दृढ बंधा हुआ है, अनेक जन्मों में भी उस बंधन के काटने को तू समर्थ नहीं होगा इस कारण, बारंबार शुद्ध विचार कर के कि ‘मैं बोधरूप’ अखंड परिपूर्ण आत्मरूप हूं, इस ज्ञानरूपी खड्ग को हाथ में लेकर उस फाँसी को काटकर सुखी हो ॥१४॥]

 

निःसंगो निष्क्रियोऽसि त्वं स्वप्रकाशो निरंजनः।
अयमेव हि ते बन्धः समाधिमनुतिष्ठति॥१५॥

 

आप असंग, अक्रिय, स्वयंप्रकाशवान तथा सर्वथादोषमुक्त हैं। आपका ध्यान द्वारा मस्तिष्क को शांत रखने का प्रयत्न ही बंधन है  १५ 

[लोगों में भ्रम है कि चित्त की वृत्ति को ध्यान के द्वारा या समाधि के द्वारा हठपूर्वक रोका जा सकता है या शांत किया जा सकता है और जिस के अंतःकरण की वृत्ति विराम को प्राप्त हो जाती है अर्थात शांत हो जाती है उस का मोक्ष होता है यह बात कल्पनामात्र ही है । इसलिए तू अंतःकरण की वृत्ति को जीतकर हठसमाधि मत कर क्योंकि तू निःसंग क्रियारहित स्वप्रकाश और निर्मल है । इस कारण हठसमाधि का अनुष्ठान भी तेरा बंधन है। आत्मा सदा शुद्ध और मुक्त है । इस कारण भ्रांतियुक्त जीव के चित्त को स्थिर करने के लिए समाधि का अनुष्ठान करने से आत्मा की हानि या वृद्धि कुछ नहीं होती है । जिस को सिद्धि लाभ अर्थात् आत्मज्ञान हो जाता है उस को अन्य समाधिक अनुष्ठान से क्या प्रयोजन है ? इस कारण ही राजा जनक के प्रति अष्टावक वर्णन करते हैं कि, तू जो समाधि का अनुष्ठान करता है यही तेरा बंधन है, परंतु आत्मज्ञान रहित पुरुष को ज्ञानप्राप्ति के लिए समाधि का अनुष्ठान करना आवश्यक है ॥ १५॥]

 

त्वया व्याप्तमिदं विश्वं त्वयि प्रोतं यथार्थतः।
शुद्धबुद्ध स्वरुप स्त्वं मा गमः क्षुद्रचित्तताम्॥१६॥

 

यह विश्व तुम्हारे द्वारा व्याप्त किया हुआ है, वास्तव में तुमने इसे व्याप्त किया हुआ है  तुम शुद्ध और ज्ञानस्वरुप हो, छोटेपन की भावना से ग्रस्त मत हो    

[जिस प्रकार सुवर्ण के कुंडल आदि सुवर्ण से व्याप्त होते हैं और जिस प्रकार मिट्टी से घट आदि व्याप्त होते हैं उसी प्रकार यह दृश्यमान संसार तुझ से व्याप्त है । अर्थात जिस प्रकार मिट्टी से घड़े आदि बर्तन बनते हैं और उनको तोड़ दो तो वापस मिट्टी ही बन जाते हैं । सोने से सोने के कुण्डल आदि आभूषण बनते हैं , उनको गला दो तो वो वापस स्वर्ण बन जाते हैं । अर्थात उनका मुख्य स्वरूप स्वर्ण या मिट्टी ही है बस दिखने में वे अलग – अलग रूप के आभूषण और बर्तन लगते हैं । उसी प्रकार हम सब उसी एक आत्म तत्व से उत्पन्न हैं । दिखने में हमारे वाह्य रूप भिन्न हैं परन्तु आत्म तत्व एक है। यथार्थ विचार कर कि तू सर्व प्रपंचरहित है तथा शुद्ध बुद्ध चिद्रूप है। तू चित्त की वृत्ति को विपरीत मत कर ॥१६॥]

 

निरपेक्षो निर्विकारो निर्भरः शीतलाशयः।
अगाधबुद्धिरक्षुब्धो भव चिन्मात्रवासन:१७॥

 

आप इच्छारहित, विकाररहित, घन (ठोस), शीतलता के धाम, अगाध बुद्धिमान हैं, शांत होकर केवल चैतन्य की इच्छा वाले हो जाइये  १७ 

[इस देह में छः उर्मी तथा छः भाव विकार प्रतीत होते हैं परन्तु वह तू नहीं है । तू उन से भिन्न और निरपेक्ष अर्थात् इच्छारहित है। क्षुधा, पिपासा (भूख प्यास ) ये दो प्राण की ऊर्मी अर्थात् धर्म हैं। शोक तथा मोह ये दो मन की ऊर्मी हैं। जन्म और मरण ये दो देह की उर्मी हैं। इस प्रकार ये जो छः ऊर्मी हैं वो तू नहीं है । अब छः भावविकारों को श्रवण कर। ” जन्म, अस्तित्व, वृद्धि, परिणाम, अपक्षय एवं विनाश” ये छः भाव स्थूलदेह के विषय रहते हैं। परन्तु वह भी तू नहीं है। तू तो उन का साक्षी अर्थात् जाननेवाला है।

जनक महाराज प्रश्न करते हैं कि, हे गुरो ! फिर मैं कौन और क्या हूं ? कृपा कर के कहिये।

तब गुरु कहते हैं कि, हे शिष्य ! तू निर्भर अर्थात् सच्चिदानंदघनरूप है, शीतल अर्थात् सुखरूप है। तू अगाधबुद्धि अर्थात् जिस की बुद्धि का कोई पार न पा सके ऐसा है और अक्षुब्ध अर्थात क्षोभरहित है इस कारण तू क्रिया का त्याग कर के चैतन्यरूप हो ॥१७॥]

 

साकारमनृतं विद्धि निराकारं तु निश्चलं।
एतत्तत्त्वोपदेशेन पुनर्भवसंभव:१८॥

 

आकार को असत्य जानकर निराकार को ही चिर स्थायी मानिये, इस तत्त्व को समझ लेने के बाद पुनः जन्म लेना संभव नहीं है  १८ 

[दर्पण में दिखने वाला प्रतिबिम्ब मिथ्या है अर्थात यह केवल दिखता है परन्तु सत्य नहीं है। क्योंकि दर्पण में देखने से जो पुरुष दिखता है वह उस का शुद्ध प्रतिबिंब दिखता है और दर्पण के हटाने से यह प्रतिबिंब पुरुष में लीन हो जाता है । इस कारण आत्मा सत्य है और उस का प्रतिबिम्ब रूप जगत् उस को तू विषतुल्य जान और आत्मा को सत्य जान तब मोक्षरूप पुरुषार्थ सिद्ध होगा। संपूर्ण पदार्थ मिथ्या कल्पित हैं और निराकार आत्मतत्त्व वो निश्चल है और त्रिकाल में सत्य है। इस कारण चिन्मात्ररूप तत्व के उपदेश से आत्मा में विश्राम करने से अर्थात आत्मा में स्थित  रहने से फिर संसार में जन्म नहीं होता है अर्थात् मोक्ष हो जाता है ॥ १८॥]

 

यथैवादर्शमध्यस्थे रूपेऽन्तः परितस्तु सः।
तथैवाऽस्मिन् शरीरेऽन्तः परितः परमेश्वरः॥१९॥

 

जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिंबित रूप उसके अन्दर भी है और बाहर भी, उसी प्रकार परमात्मा इस शरीर के भीतर भी निवास करता है और उसके बाहर भी  १९ 

[वर्णाश्रमधमरूप स्थूलशरीर तथा पुण्य पाप रूपी लिंगशरीर यह दोनों जड हैं इसलिए ये आत्मा नहीं हो सकते हैं क्योंकि आत्मा तो व्यापक है । जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिंब पड़ता है, उस दर्पण के भीतर और बाहर एक पुरुष व्यापक होता है। उसी प्रकार इस स्थूल शरीर में एक ही आत्मा व्याप रहा है । उस परमात्मा में यह विश्व रस्सी में कल्पित सर्प के समान सत्य प्रतीत होता है परन्तु वास्तव में मिथ्या है ॥ १९॥]

 

एकं सर्वगतं व्योम बहिरन्तर्यथा घटे।
नित्यं निरन्तरं ब्रह्म सर्वभूतगणे तथा॥२०॥

 

जिस प्रकार एक ही आकाश पात्र के भीतर और बाहर व्याप्त है, उसी प्रकार शाश्वत और सतत परमात्मा समस्त प्राणियों में विद्यमान है  २०   

[जिस प्रकार एक ही आकाश है, वह घटादि संपूर्ण पदार्थों में व्याप रहा है। मान लो बहुत से घड़े पानी से भरे रखे हैं । उन सब घड़ों में वह एक ही आकाश दृष्टिगोचर हो रहा होता है । घड़े अनेक हैं परन्तु उनमें दिखने वाला आकाश एक है , उसी  प्रकार अखंड अविनाशी ब्रह्म एक है और वह ही वह संपूर्ण प्राणियों के अंतर में तथा बाहर में व्याप रहा है।]

 

 

इति श्रीमदष्टावक्रमुनिविरचितायां ब्रह्मविद्यायां प्रथमं प्रकरणं समाप्तम् ॥ १॥

 

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