भगवद गीता अध्याय 1 " अर्जुन विषाद योग "

 

 

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अध्याय-एक : अर्जुन विषाद योग 

28-47 अर्जुनका विषाद,भगवान के नामों की व्याख्या

 

 

Arjun Vishad Yog

सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति

वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ॥1.29॥

 

सीदन्ति–काँप रहे हैं; मम-मेरे; गात्रणि-होंठ; मुखम्-मुँह; च-भी; परिशुष्यति-सूख रहा है; वेपथुः-कम्पन; च-भी; शरीरे-शरीर में; मे- मेरे; रोमहर्षः-शरीर के रोम कूप खड़े होना; च-भी; जायते-उत्पन्न हो रहा है;

 

मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कम्प एवं रोमांच हो रहा है॥1.29।।

 

  सीदन्ति मम गात्राणि ৷৷. भ्रमतीव च मे मनः  – अर्जुन के मन में युद्ध के भावी परिणाम को लेकर चिन्ता हो रही है , दुःख हो रहा है। उस चिन्ता , दुःख का असर अर्जुन के सारे शरीर पर पड़ रहा है। उसी असर को अर्जुन स्पष्ट शब्दों में कह रहे हैं कि मेरे शरीर का हाथ , पैर , मुख आदि एक-एक अङ्ग (अवयव) शिथिल हो रहा है मुख सूखता जा रहा है। जिससे बोलना भी कठिन हो रहा है , सारा शरीर थरथर काँप रहा है , शरीर के सभी रोंगटे खड़े हो रहे हैं अर्थात् सारा शरीर रोमाञ्चित हो रहा है जिस गाण्डीव धनुष की प्रत्यञ्चा की टङ्कार से शत्रु भयभीत हो जाते हैं वही गाण्डीव धनुष आज मेरे हाथ से गिर रहा है , त्वचा में , सारे शरीर में जलन हो रही है  (टिप्पणी प0 22.1) । मेरा मन भ्रमित हो रहा है अर्थात् मेरे को क्या करना चाहिये ? यह भी नहीं सूझ रहा है । यहाँ युद्धभूमि में रथ पर खड़े रहने में भी मैं असमर्थ हो रहा हूँ । ऐसा लगता है कि मैं मूर्च्छित होकर गिर पड़ूँगा । ऐसे अनर्थकारक युद्ध में खड़ा रहना भी एक पाप मालूम दे रहा है। पूर्वश्लोक में अपने शरीर के शोकजनित आठ चिह्नों का वर्णन करके अब अर्जुन भावी परिणाम के सूचक शकुनों की दृष्टिसे युद्ध करनेका अनौचित्य बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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