भगवद गीता अध्याय 1 " अर्जुन विषाद योग "

 

 

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अध्याय-एक : अर्जुन विषाद योग 

28-47 अर्जुनका विषाद,भगवान के नामों की व्याख्या

 

 

Arjun Vishad Yog

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।

धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥1.40॥

 

कुलक्षये-कुल का नाश; प्रणश्यन्ति–विनष्ट हो जाती हैं; कुलधर्माः-पारिवारिक परम्पराएं; सनातनाः-शाश्वत; धर्मेनष्टे-धर्म नष्ट होने पर; कुलम्-परिवार को; कृत्स्नम्- सम्पूर्ण; अधर्म:-अधर्म; अभिभवति–अभिभूत; उत–वास्तव में।

 

जब कुल का नाश हो जाता है तब इसकी कुल परम्पराएं भी नष्ट हो जाती हैं और कुल के शेष परिवार अधर्म में प्रवृत्त होने लगते हैं।।1.40।।

 

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः – जब युद्ध होता है तब उसमें कुल (वंश ) का क्षय (ह्रास ) होता है। जब से कुल आरम्भ हुआ है तभी से कुल के धर्म अर्थात् कुल की पवित्र परम्पराएँ , पवित्र रीतियाँ , मर्यादाएँ भी परम्परा से चलती आयी हैं परन्तु जब कुल का क्षय हो जाता है तब सदा से कुल के साथ रहने वाले धर्म भी नष्ट हो जाते हैं अर्थात् जन्म के समय द्वजाति संस्कार के समय , विवाह के समय , मृत्यु के समय और मृत्यु के बाद किये जाने वाले जो-जो शास्त्रीय पवित्र रीति-रिवाज हैं जो कि जीवित और मृतात्मा मनुष्यों के लिये इस लोक में और परलोक में कल्याण करने वाले हैं वे नष्ट हो जाते हैं। कारण कि जब कुल का ही नाश हो जाता है तब कुल के आश्रित रहने वाले धर्म किसके आश्रित रहेंगे ? ‘धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत’ – जब कुल की पवित्र मर्यादाएँ , पवित्र आचरण नष्ट हो जाते हैं तब धर्म का पालन न करना और धर्म से विपरीत काम करना अर्थात् करने लायक काम को न करना और न करने लायक काम को करना रूप ,अधर्म और सम्पूर्ण कुल को दबा लेता है अर्थात् सम्पूर्ण कुल में अधर्म छा जाता है। अब यहाँ यह शङ्का होती है कि जब कुल नष्ट हो जायगा , कुल रहेगा ही नहीं तब अधर्म किसको दबायेगा ? इसका उत्तर यह है कि जो लड़ाई के योग्य पुरुष हैं वे तो युद्ध में मारे जाते हैं किन्तु जो लड़ाई के योग्य नहीं हैं – ऐसे जो बालक और स्त्रियाँ पीछे बच जाती हैं उनको अधर्म दबा लेता है। कारण कि जब युद्ध में शस्त्र , शास्त्र , व्यवहार आदि के जानकार और अनुभवी पुरुष मर जाते हैं तब पीछे बचे लोगों को अच्छी शिक्षा देने वाले , उन पर शासन करने वाले नहीं रहते। इससे मर्यादा का , व्यवहार का ज्ञान न होने से वे मनमाना आचरण करने लग जाते हैं अर्थात् वे करने लायक काम को तो करते नहीं और न करने लायक काम को करने लग जाते हैं। इसलिये उनमें अधर्म फैल जाता है – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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