Bhagavat Gita in hindi chapter 4

 

 

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ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार

01-15 योग परंपरा, भगवान के जन्म कर्म की दिव्यता, भक्त लक्षणभगवत्स्वरूप

 

 

Bhagavat Gita in hindi chapter 4

 

ये यथा माँ प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्‌ ।

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥4.11

 

येजो; यथाजैसे भी; माम्मेरी; प्रपद्यन्तेशरण ग्रहण करते हैं; तान्उनको; तथाउसी प्रकार; एवनिश्चय ही; भजामिफल प्रदान करता हूँ; अहम्मैं; मममेरे; वर्त्ममार्ग का; अनुवर्तन्तेअनुसरण करते हैं; मनुष्याःमनुष्य; पार्थपृथापुत्र, अर्जुन; सर्वशःसभी प्रकार से।

 

हे अर्जुन! जो जिस भाव से लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं उसी भाव के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ। अर्थात जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से ( जाने या अनजाने ) में मेरे मार्ग का ही अनुसरण करते हैं॥4.11

 

( भक्त भगवान की जिस भाव से , जिस सम्बन्ध से , जिस प्रकार से शरण लेता है भगवान् भी उसे उसी भाव से , उसी सम्बन्ध से , उसी प्रकार से आश्रय देते हैं। जैसे भक्त भगवान को अपना गुरु मानता है तो वे श्रेष्ठ गुरु बन जाते हैं , शिष्य मानता है तो वे श्रेष्ठ शिष्य बन जाते हैं , माता-पिता मानता है तो वे श्रेष्ठ माता-पिता बन जाते हैं , पुत्र मानता है तो वे श्रेष्ठ पुत्र बन जाते हैं ,भाई मानता है तो वे श्रेष्ठ भाई बन जाते हैं , सखा मानता है तो वे श्रेष्ठ सखा बन जाते हैं , नौकर मानता है तो वे श्रेष्ठ नौकर बन जाते हैं। भक्त भगवान के बिना व्याकुल हो जाता है तो भगवान् भी भक्त के बिना व्याकुल हो जाते हैं। अर्जुन का भगवान श्रीकृष्ण के प्रति सखा भाव था तथा वे उन्हें अपना सारथि बनाना चाहते थे अतः भगवान सखाभाव से उनके सारथि बन गये। विश्वामित्र ऋषि ने भगवान् श्रीराम को अपना शिष्य मान लिया तो भगवान् उनके शिष्य बन गये। इस प्रकार भक्तों के श्रद्धाभाव के अनुसार भगवान का वैसा ही बनने का स्वभाव है। अनन्त ब्रह्माण्डों के स्वामी भगवान भी अपने ही बनाये हुए साधारण मनुष्यों के भावों के अनुसार बर्ताव करते हैं यह उनकी कितनी विलक्षण उदारता दयालुता और अपनापन है भगवान विशेष रूप से भक्तों के लिये ही अवतार लेते हैं ऐसा प्रस्तुत प्रकरण से सिद्ध होता है। भक्तलोग जिस भाव से जिस रूप में भगवान की सेवा करना चाहते हैं भगवान को उनके लिये उसी रूप में आना पड़ता है। जैसे उपनिषद में आया है एकाकी न रमते (बृहदारण्यक0 1। 4। 3) अकेले भगवान का मन नहीं लगा तो वे ही भगवान् अनेक रूपों में प्रकट होकर खेल खेलने लगे। ऐसे ही जब भक्तों के मन में भगवान के साथ खेल खेलने की इच्छा हो जाती है तब भगवान् उनके साथ खेल खेलने (लीला करने) के लिये प्रकट हो जाते हैं। भक्त भगवान के बिना नहीं रह सकता तो भगवान् भी भक्त के बिना नहीं रह सकते। यहाँ आये ” यथा और तथा” इन प्रकारवाचक पदों का अभिप्राय सम्बन्ध भाव और लगन से है। भक्त और भगवान का प्रकार एक सा होने पर भी इनमें एक बहुत बड़ा अन्तर यह है कि भगवान भक्त की चाल से नहीं चलते बल्कि अपनी चाल (शक्ति) से चलते हैं । भगवान सर्वत्र विद्यमान, सर्वसमर्थ , सर्वज्ञ , परम सुहृद् और सत्यसंकल्प हैं। भक्त को केवल अपनी पूरी शक्ति लगा देनी है फिर भगवान् भी अपनी पूरी शक्ति से उसे प्राप्त हो जाते हैं। भगवत्प्राप्ति में बाधा साधक स्वयं लगाता है क्योंकि भगवत्प्राप्ति के लिये वह समझ , सामग्री , समय और सामर्थ्य को अपनी मानकर उन्हें पूरा नहीं लगाता प्रत्युत अपने पास बचाकर रख लेता है। यदि वह उन्हें अपना न मानकर उन्हें पूरा लगा दे तो उसे शीघ्र ही भगवत्प्राप्ति हो जाती है। कारण कि यह समझ , सामग्री आदि उसकी अपनी नहीं हैं प्रत्युत भगवान से मिली हैं और भगवान की हैं। अतः इन्हें अपनी मानना ही बाधा है। साधक स्वयं भी भगवान का ही अंश है। उसने खुद अपने को भगवान से अलग माना है ,भगवान ने नहीं। भक्ति (प्रेम) कर्मजन्य अर्थात् किसी साधन विशेष का फल नहीं है। भगवान के सर्वथा शरण होने वाले को भक्ति स्वतः प्राप्त होती है। दास्य , सख्य , वात्सल्य , माधुर्य आदि भावों में सबसे श्रेष्ठ शरणागति का भाव है। यहाँ भगवान् मानो इस बात को कह रहे हैं कि तुम अपना सब कुछ मुझे दे दोगे तो मैं भी अपना सब कुछ तुम्हें दे दूँगा और तुम अपने आपको मुझे दे दोगे तो मैं भी अपने आपको तुम्हें दे दूँगा। भगवत्प्राप्ति का कितना सरल और सस्ता सौदा है। अपने आप को भगवच्चरणोंमें समर्पित करनेके बाद भगवान् भक्त की पुरानी त्रुटियों को याद तक नहीं करते। वे तो वर्तमान में साधक के हृदय का दृढ़ भाव देखते हैं । “रहति न प्रभु चित चूक किए की।करत सुरति सय बार हिए की।।(मानस 1। 29। 3)” इस (11वें) श्लोक में द्वैत-अद्वैत , सगुण-निर्गुण, सायुज्य-सामीप्य आदि शास्त्रीय विषय का वर्णन नहीं है बल्कि भगवान से अपनेपन का ही वर्णन है। जैसे नवें श्लोक में भगवान के जन्म-कर्म की दिव्यता को जानने से भगवत्प्राप्ति होने का वर्णन है। केवल भगवान् ही मेरे हैं और मैं भगवान का ही हूँ दूसरा कोई भी मेरा नहीं है और मैं किसी का भी नहीं हूँ इस प्रकार भगवान् में अपनापन करने से उनकी प्राप्ति शीघ्र एवं सुगमता से हो जाती है। अतः साधक को केवल भगवान् में ही अपनापन मान लेना चाहिये (जो वास्तव में है) चाहे समझ में आये अथवा न आये। मान लेने पर जब संसार के झूठे सम्बन्ध भी सच्चे प्रतीत होने लगते हैं फिर जो भगवान का सदा से ही सच्चा सम्बन्ध है वह अनुभव में क्यों नहीं आयेगा अर्थात् अवश्य आयेगा। शङ्का – जो भगवान को जिस भाव से स्वीकार करते हैं भगवान् भी उनसे उसी भाव से बर्ताव करते हैं तो फिर यदि कोई भगवान् को द्वैष , वैर आदि के भाव से स्वीकार करेगा तो क्या भगवान् भी उससे उसी (द्वेष आदि के) भाव से बर्ताव करेंगे ? समाधान – यहाँ “प्रपद्यन्ते ” पद से भगवान की प्रपत्ति अर्थात् शरणागति का ही विषय है , उनसे द्वेष- वैर आदि का विषय नहीं। अतः यहाँ इस विषय में शङ्का ही नहीं उठ सकती। फिर भी इस पर थोड़ा विचार करें तो भगवान के स्वीकार करने का तात्पर्य है कल्याण करना। जो भगवान को जिस भाव से स्वीकार करता है भगवान् भी उससे वैसा ही आचरण करके अन्त में उसका कल्याण ही करते हैं । भगवान् प्राणिमात्र के परम सुहृद् हैं (गीता 5। 29)। इसलिये जिसका जिसमें हित होता है भगवान् उसके लिये वैसा ही प्रबन्ध कर देते हैं। वैर-द्वेष रखने वालों का भी जिससे कल्याण हो जाय वैसा ही भगवान् कहते हैं। वैर-द्वेष रखने वाले भगवान् का बिगाड़ भी क्या कर लेंगे ? अंगदजी को रावण की सभा में भेजते समय भगवान् श्रीराम कहते हैं कि वही बात कहना जिससे हमारा काम भी हो और रावण का हित भी हो । “काजु हमार तासु हित होई (मानस 6। 17। 4)।” भगवान की सुहृत्ता की तो बात ही क्या भक्त भी समस्त प्राणियों के सुहृद् होते हैं – “सुहृदः सर्वदेहिनाम् (श्रीमद्भा0 3। 25। 21)”। जब भक्तों से भी किसी का किञ्चिन्मात्र भी अहित नहीं होता तब भगवान से किसी का अहित हो ही कैसे सकता है ? भगवान से किसी प्रकार का भी सम्बन्ध जोड़ा जाय वह कल्याण करने वाला ही होता है क्योंकि भगवान् परम दयालु , परम सुहृद् और चिन्मय हैं। जैसे गङ्गामें स्नान वैशाख मास में किया जाय अथवा माघ मास में दोनों का ही माहात्म्य एक समान है परन्तु वैशाख के स्नानमें जैसी प्रसन्नता होती है वैसी प्रसन्नता माघ के स्नान में नहीं होती। इसी प्रकार भक्तिप्रेमपूर्वक भगवान से सम्बन्ध जोड़ने वालों को जैसा आनन्द होता है वैसा आनन्द वैर-द्वेषपूर्वक भगवान् से सम्बन्ध जोड़ने वालों को नहीं होता। “मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ” श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करता है दूसरे लोग भी उसी के अनुसार आचरण करने लग जाते हैं (गीता 3। 21)। भगवान् सबसे श्रेष्ठ (सर्वोपरि) हैं इसलिये सभी लोग उनके मार्ग का अनुसरण करते हैं । तीसरे अध्याय में 23वें श्लोक के उत्तरार्ध में भी यही बात (उपर्युक्त पदों से ही ) कही गयी है। साधक भगवान के साथ जिस प्रकार का सम्बन्ध मानता है भगवान् उसके साथ वैसा ही सम्बन्ध मानने के लिये तैयार रहते हैं। महाराज दशरथजी भगवान् श्रीराम को पुत्रभाव से स्वीकार करते हैं तो भगवान् उनके सच्चे पुत्र बन जाते हैं और सामर्थ्यवान् होकर भी पिता दशरथजी के वचनों को टालने में अपने को असमर्थ मानते हैं । इस प्रकार के आचरणों से भगवान् यह रहस्य प्रकट करते हैं कि यदि तुम्हारी संसार में किसी के साथ सम्बन्ध के नाते प्रियता हो तो वही सम्बन्ध तुम मेरे साथ कर लो , जैसे माता में प्रियता हो तो मेरे को अपनी माता मान लो, पिता में प्रियता हो तो मेरे को अपना पिता मान लो , पुत्र में प्रियता हो तो मेरे को अपना पुत्र मान लो आदि। ऐसा मानने से मेरे में वास्तविक प्रियता हो जायगी और मेरी प्राप्ति सुगमतापूर्वक हो जायगी। दूसरी बात भगवान् अपने आचरणों से यह शिक्षा देते हैं कि जिस प्रकार मेरे साथ जो जैसा सम्बन्ध मानता है उसके लिये मैं भी वैसा ही बन जाता हूँ उसी प्रकार तुम्हारे साथ जो जैसा सम्बन्ध मानता है तुम भी उसके लिये वैसे ही बन जाओ । जैसे माता-पिताके लिये तुम सुपुत्र बन जाओ , पत्नी के लिये तुम सुयोग्य पति बन जाओ,  बहन के लिये तुम श्रेष्ठ भाई बन जाओ आदि परन्तु बदले में उनसे कुछ चाहो मत । जैसे कुछ लेने की इच्छा से माता-पिताको अपने न मानकर केवल सेवा करने के लिये ही उन्हें अपने मानो। ऐसा मानना ही भगवान के मार्ग का अनुसरण करना है। अभिमान रहित होकर निःस्वार्थभाव से दूसरे की सेवा करने से शीघ्र ही दूसरे की ममता छूटकर भगवान में प्रेम हो जायगा , जिससे भगवान की प्राप्ति हो जायगी। अहंकार रहित होकर निःस्वार्थभाव से कहीं भी प्रेम किया जाय तो वह प्रेम स्वतः प्रेममय भगवान की तरफ चला जाता है। कारण कि अपना अहंकार और स्वार्थ ही भगवत्प्रेम में बाधा लगाता है। इन दोनों के कारण मनुष्य का प्रेम भाव सीमित हो जाता है और इनका त्याग करने पर उसका प्रेमभाव व्यापक हो जाता है। प्रेमभाव व्यापक होने पर उसके माने हुए सभी बनावटी सम्बन्ध मिट जाते हैं और भगवान का स्वाभाविक नित्यसम्बन्ध जाग्रत् हो जाता है। जीवमात्र का परमात्मा के साथ स्वतः नित्यसम्बन्ध है (गीता 15। 7) परन्तु जब तक जीव इस सम्बन्ध को पहचानता नहीं और दूसरा सम्बन्ध जोड़ लेता है तब तक वह जन्म-मरण के बन्धन में पड़ा रहता है। उसका यह बन्धन दो ओर से होता है एक तो वह भगवान के साथ अपने नित्य सम्बन्ध को पहचानता नहीं और दूसरे जिसके साथ वास्तव में अपना सम्बन्ध है नहीं उसके सम्बन्ध को नित्य मान लेता है। जब जीव “ये यथा मां प्रपद्यन्ते ” के अनुसार अपना सम्बन्ध केवल भगवान से मान लेता है अर्थात् पहचान लेता है तब उसे भगवान से अपने नित्य सम्बन्ध का अनुभव हो जाता है। भगवान के नित्यसम्बन्ध को पहचानना ही भगवान् के  शरण होना है। शरण होने पर भक्त निश्चिन्त , निर्भय , निःशोक और निःशङ्क हो जाता है। फिर उसके द्वारा भगवान की आज्ञा के विरुद्ध कोई क्रिया कैसे हो सकती है ? उसकी सम्पूर्ण क्रियाएँ भगवान के आज्ञानुसार ही होती हैं – मम वर्त्मानुवर्तन्ते। पूर्वश्लोक में भगवान ने  बताया कि जो मुझे जिस भाव से स्वीकार करता है मैं भी उसे उसी भाव से स्वीकार करता हूँ अर्थात् मेरी प्राप्ति बहुत सरल और सुगम है। ऐसा होनेपर भी लोग भगवान का आश्रय क्यों नहीं लेते इसका कारण आगे के श्लोक में बताते हैं- स्वामी रामसुखदास जी )

 

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