ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार
19-23 कर्म में अकर्मता-भाव, नैराश्य-सुख, यज्ञ की व्याख्या
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः ।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः ॥4.19॥
यस्य–जिसके; सर्वे- प्रत्येक; समारम्भाः–प्रयास, काम–भौतिक सुख की इच्छा से; संकल्प–दृढनिश्चयः वर्जिताः–रहितं; ज्ञान–दिव्य ज्ञान की; अग्रि–अग्नि में; दग्धः–भस्म हुए; कर्माणम्–कर्म; तम्–उसके; आहुः–कहते हैं; पण्डितम्–ज्ञानी; बुधा–बुद्धिमान।
जिसके सम्पूर्ण शास्त्रसम्मत कर्म बिना सांसारिक या भौतिक सुखों की कामना और संकल्प के होते हैं तथा जिसके समस्त कर्म दिव्य ज्ञानरूप अग्नि द्वारा भस्म हो गए हैं अर्थात जिन्होंने अपने कर्म फलों को दिव्य ज्ञान की अग्नि में भस्म कर दिया है , उस महापुरुष को ज्ञानीजन ( आत्म ज्ञानी संत ) भी पंडित अर्थात बुद्धिमान कहते हैं॥4.19॥
( विषयों का बार-बार चिन्तन होने से , उनकी बार-बार याद आने से , उन विषयों में ये विषय अच्छे हैं , काम में आने वाले हैं , जीवन में उपयोगी हैं और सुख देने वाले हैं ऐसी सम्यग्बुद्धि का होना संकल्प है और ये विषय पदार्थ हमारे लिये अच्छे नहीं हैं , हानिकारक हैं ऐसी बुद्धि का होना विकल्प है। ऐसे संकल्प और विकल्प बुद्धि में होते रहते हैं। जब विकल्प मिटकर केवल एक संकल्प रह जाता है तब ये विषयपदार्थ हमें मिलने चाहिये , ये हमारे होने चाहिये इस तरह अन्तःकरण में उनको प्राप्त करने की जो इच्छा पैदा हो जाती है उसका नाम काम या कामना है। कर्मयोग से सिद्ध हुए महापुरुष में संकल्प और कामना दोनों ही नहीं रहते अर्थात उसमें न तो कामनाओं का कारण संकल्प रहता है और न संकल्पों का कार्य कामना ही रहती है। अतः उसके द्वारा जो भी कर्म होते हैं वे सब संकल्प और कामना से रहित होते हैं। संकल्प और कामना ये दोनों कर्म के बीज हैं। संकल्प और कामना न रहने पर कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात कर्म बाँधने वाले नहीं होते। सिद्ध महापुरुष में भी संकल्प और कामना न रहने से उसके द्वारा होने वाले कर्म बन्धनकारक नहीं होते। उसके द्वारा सम्पूर्ण कर्म लोकसंग्रह के लिए और कर्तव्य की परम्परा की सुरक्षा के लिए होते हुए भी वह उन कर्मों से स्वतः सर्वथा निर्लिप्त रहता है।भगवान ने कहीं पर संकल्पों का , कहीं पर कामनाओं का और कहीं पर संकल्प तथा कामना दोनों का त्याग बताया है। अतः जहाँ केवल संकल्पों का त्याग बताया गया है वहाँ कामनाओं का और जहाँ केवल कामनाओं का त्याग बताया गया है वहाँ संकल्पों का त्याग भी समझ लेना चाहिये क्योंकि संकल्प कामनाओं का कारण है और कामना संकल्पों का कार्य है। तात्पर्य है कि साधक को सम्पूर्ण संकल्पों और कामनाओंका त्याग कर देना चाहिये। मोटर की चार अवस्थाएँ होती हैं । 1. मोटर गैरेज में खड़ी रहने पर न इंजन चलता है और न पहिये चलते हैं। 2. मोटर चालू करने पर इंजन तो चलने लगता है पर पहिये नहीं चलते। 3. मोटर को वहाँ से रवाना करने पर इंजन भी चलता है और पहिये भी चलते हैं। 4. ढलान वाला मार्ग आने पर इंजन को बंद कर देते हैं और पहिये चलते रहते हैं। इसी प्रकार मनुष्य की भी चार अवस्थाएँ होती हैं। 1. न कामना होती है और न कर्म होता है। 2. कामना होती है पर कर्म नहीं होता। 3. कामना भी होती है और कर्म भी होता है। 4. कामना नहीं होती और कर्म होता है। मोटरकी सबसे उत्तम (चौथी) अवस्था यह है कि इंजन न चले और पहिये चलते रहें अर्थात् तेल भी खर्च न हो और रास्ता भी तय हो जाय। इसी तरह मनुष्य की सबसे उत्तम अवस्था यह है कि कामना न हो और कर्म होते रहें। ऐसी अवस्था वाले मनुष्य को ज्ञानीजन भी पण्डित कहते हैं। कर्मयोग से सिद्ध महापुरुष के द्वारा हर एक कर्म सुचारु रूप से साङ्गोपाङ्ग और तत्परतापूर्वक होता है। दूसरा एक भाव यह भी है कि उसके कर्म शास्त्रसम्मत होते हैं। उसके द्वारा करने योग्य कर्म ही होते हैं। जिससे किसी का अहित होता हो वह कर्म उससे कभी नहीं होता। उसके द्वारा होने वाले सबके सब कर्म संकल्प और कामना से रहित होते हैं। कोई सा भी कर्म संकल्प सहित नहीं होता। प्रातः उठने से लेकर रात में सोने तक , शौचस्नान , खाना-पीना , पाठ-पूजा, जप-चिन्तन , ध्यान-समाधि आदि शरीर निर्वाह सम्बन्धी सम्पूर्ण कर्म संकल्प और कामना से रहित ही होते हैं। कर्मों का सम्बन्ध पर अर्थात शरीर और संसार के साथ है स्व अर्थात स्वरूप के साथ नहीं क्योंकि कर्मों का आरम्भ और अन्त होता है पर स्वरूप सदा ज्यों का त्यों रहता है इस तत्त्व को ठीक-ठीक जानना ही ज्ञान है। इस ज्ञान रूप अग्नि से सम्पूर्ण कर्म भस्म हो जाते हैं अर्थात् कर्मों में फल देने की या बाँधने की शक्ति नहीं रहती । वास्तव में शरीर और क्रिया दोनों संसार से अभिन्न हैं पर स्वयं सर्वथा भिन्न होता हुआ भी भूल से इनके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है। जब महापुरुष का अपना कहलाने वाले शरीर के साथ भी कोई सम्बन्ध नहीं रहता तब जैसे संसारमात्र से सब कर्म होते हैं ऐसे ही उसके कहलाने वाले शरीर से सब कर्म होते हैं। इस प्रकार कर्मों से निर्लिप्तता का अनुभव होने पर उस महापुरुष के वर्तमान कर्म ही नष्ट नहीं होते बल्कि संचित कर्म भी सर्वथा नष्ट हो जाते हैं। प्रारब्धकर्म भी केवल अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति के रूप में उसके सामने आकर नष्ट हो जाते हैं परन्तु फल से असङ्ग होने के कारण वह उनका भोक्ता नहीं बनता अर्थात् किञ्चिन्मात्र भी सुखी या दुःखी नहीं होता। इसलिये प्रारब्धकर्म भी अस्थायी परिस्थिति मात्र उत्पन्न करके नष्ट हो जाते हैं। जो कर्मों का स्वरूप से त्याग करके परमात्मा में लगा हुआ है उस मनुष्य को समझना तो सुगम है पर जो कर्मों से किञ्चिन्मात्र भी लिप्त हुए बिना तत्परता पूर्वक कर्म कर रहा है उसे समझना कठिन है। सन्तों की वाणी में आया है त्यागी शोभा जगत में करता है सब कोय। हरिया गृहस्थी संत का भेदी बिरला होय। तात्पर्य यह है कि संसार में बाहर से त्याग करने वाले त्यागी पुरुष की महिमा तो सब गाते हैं पर गृहस्थ में रहकर सब कर्तव्य कर्म करते हुए भी जो निर्लिप्त रहता है उस भीतर का त्याग करने वाले पुरुष को समझने वाला कोई बिरला ही होता है। जैसे कमल का पत्ता जल में ही उत्पन्न होकर और जल में रहते हुए भी जल से लिप्त नहीं होता ऐसे ही कर्मयोगी कर्मयोनि अर्थात मनुष्य शरीर में ही उत्पन्न होकर और कर्ममय जगत में रहकर कर्म करते हुए भी कर्मों से लिप्त नहीं होता। कर्मों से लिप्त न होना कोई साधारण बुद्धिमानी का काम नहीं है। भगवान ने ऐसे कर्मयोगी को मनुष्यों में बुद्धिमान कहा है और यह कहा है कि उसे ज्ञानिजन भी पण्डित अर्थात् बुद्धिमान् कहते हैं। भाव यह है कि ऐसा कर्मयोगी पण्डितों का भी पण्डित ज्ञानियों का भी ज्ञानी है – स्वामी रामसुखदास जी )