Bhagavat Gita in hindi chapter 4

 

 

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ज्ञानकर्मसंन्यासयोग ~ अध्याय चार

34-42 ज्ञान की महिमा तथा अर्जुन को कर्म करने की प्रेरणा

 

 

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 4

 

यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।

येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥4.35॥

 

यत्जिसे; ज्ञात्वाजानकर; कभी; पुनःफिर; मोहम्मोह को; एवम्इस प्रकार; यास्यसितुम प्राप्त करोगे; पाण्डवपाण्डव पुत्र, अर्जुन; येनजिसके द्वारा; भूतानिजीवों को; अशेषेणसमस्त; द्रक्ष्यसितुम देखोगे; आत्मनिमुझ परमात्मा, श्रीकृष्ण में; अथोयह कहा गया है; मयिमुझमें।

 

हे पाण्डुपुत्र ! इस मार्ग का अनुसरण कर और गुरु से ज्ञानावस्था प्राप्त करने पर, तुम कभी मोह में नहीं पड़ोगे क्योंकि इस ज्ञान के प्रकाश में तुम यह देख सकोगे कि सभी जीव परमात्मा का अंश हैं और वे सब मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में स्थित हैं॥4.35

( भगवान ने कहा कि वे महापुरुष तेरे को तत्त्वज्ञान का उपदेश देंगे परन्तु उपदेश सुनने मात्र से वास्तविक बोध अर्थात् स्वरूप का यथार्थ अनुभव नहीं होता और वास्तविक बोध का वर्णन भी कोई कर नहीं सकता कारण कि वास्तविक बोध करण निरपेक्ष है अर्थात् मन , वाणी आदि से परे है। अतः वास्तविक बोध स्वयं के द्वारा ही स्वयं को होता है और यह तब होता है जब मनुष्य अपने विवेक (जड चेतन के भेद का ज्ञान) को महत्त्व देता है। विवेक को महत्त्व देने से जब अविवेक सर्वथा मिट जाता है तब वह विवेक ही वास्तविक बोध में परिणत हो जाता है और जडता से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद करा देता है। वास्तविक बोध होने पर फिर कभी मोह नहीं होता। गीताके पहले अध्यायमें अर्जुन का मोह प्रकट होता है कि युद्ध में सभी कुटुम्बी सगे-सम्बन्धी लोग मर जायँगे तो उन्हें पिण्ड और जल देने वाला कौन होगा ? पिण्ड और जल न देने से वे नरकों में गिर जायँगे। जो जीवित रह जायँगे उन स्त्रियों का और बच्चों का निर्वाह और पालन कैसे होगा आदि आदि। तत्त्वज्ञान होने के बाद ऐसा मोह नहीं रहता। बोध होने पर जब संसार से मैं और मेरेपन का सम्बन्ध नहीं रहता तब पुनः मोह होने का प्रश्न ही नहीं रहता। तत्त्वज्ञान होते ही ऐसा अनुभव होता है कि मेरी सत्ता सर्वत्र परिपूर्ण है और उस सत्ता के अन्तर्गत ही अनन्त ब्रह्माण्ड हैं। जैसे स्वप्न से जगा हुआ मनुष्य स्वप्न की सृष्टि को अपने में ही देखता है ऐसे ही तत्त्वज्ञान होने पर मनुष्य सम्पूर्ण प्राणियों (जगत्) को अपने में ही देखता है। तत्त्वज्ञान प्राप्त करने की जो प्रचलित प्रक्रिया है उसी के अनुसार भगवान् कह रहे हैं कि गुरु से विधिपूर्वक (श्रवण , मनन और निदिध्यासनपूर्वक ) तत्त्वज्ञान प्राप्त करने पर साधक पहले अपने स्वरूप में सम्पूर्ण प्राणियों को देखता है । यह त्वम् पदका अनुभव हुआ फिर वह स्वरूप को तथा सम्पूर्ण प्राणियों को एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा में देखता है यह तत् पद का अनुभव हुआ। इस तरह उसको पहले त्वम (स्वरूप) का और फिर तत् (परमात्मतत्त्व) के साथ त्वम् की एकता का अनुभव हो जाता है। केवल एक ब्रह्म ही ब्रह्म शेष रह जाता है। ऐसी अवस्था में द्रष्टा , दृश्य और दर्शन ये तीनों ही नहीं रहते परन्तु लोगों की दृष्टि में उसके अपने कहलाने वाले अन्तःकरण में जो भाव दिखता है उसको लेकर ही भगवान् कहते हैं कि वह सबको मेरे में देखता है। स्थूल दृष्टि से समुद्र और लहरों में भिन्नता दिखती है। लहरें समुद्र में ही उठती और लीन होती रहती हैं परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से समुद्र और लहरों की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। सत्ता केवल एक जल तत्त्व की ही है। जल तत्त्व में न समुद्र है न लहरें। पृथ्वी से सम्बन्ध होने के कारण समुद्र भी सीमित है और लहरें भी परन्तु जल तत्त्व सीमित नहीं है। अतः समुद्र और लहरों को न देखकर एक जलतत्त्व को देखना ही यथार्थ दृष्टि है। इसी तरह संसाररूप समुद्र और शरीररूप लहरों में भिन्नता दिखती है। शरीर संसार में ही उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं परन्तु वास्तव में संसार और शरीर समुदाय की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। सत्ता केवल परमात्मतत्त्व की ही है। परमात्मतत्त्व में न संसार है न शरीर। प्रकृति से सम्बन्ध होने के कारण संसार भी सीमित है और शरीर भी परन्तु परमात्मतत्त्व सीमित नहीं है। अतः संसार और शरीरों को न देखकर एक परमात्मतत्त्व को देखना ही यथार्थ दृष्टि है – स्वामी रामसुखदास जी )

       

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