bhramar geet with hindi meaning

Bhramar Geet Lyrics with Hindi Meaning| श्रीमदभागवतम में वर्णित भ्रमर गीत | Gopi Bhramar Geet / Bhramar Gitam / Bhramar Gita | भ्रमर गीत हिंदी अर्थ सहित / गोपी भ्रमर गीत / भ्रमर गीता  | गोपियों द्वारा गाया हुआ भ्रमर गीत | Bhramar Geet sung by Gopis

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bhramar geet with hindi meaning

 

 

हिन्दी काव्य में भ्रमरगीत का मूलस्रोत, श्रीमद्भागवत पुराण है जिसके दशम स्कंध के छियालीसवें एवं सैतालीसवें अध्याय में भ्रमरगीत प्रसंग है। श्रीकृष्ण गोपियों को छोङकर मथुरा चले गए और गोपियां विरह विकल हो गई। कृष्ण मथुरा में लोकहितकारी कार्यों में व्यस्त थे किन्तु उन्हें ब्रज की गोपियों की याद सताती रहती थी।

उन्होंने अपने अभिन्न मित्र उद्धव को संदेशवाहक बनाकर गोकुल भेजा। वहां गोपियों के साथ उनका वार्तालाप हुआ तभी एक भ्रमर वहां उङता हुआ आ गया।

गोपियों ने उस भ्रमर को प्रतीक बनाकर अन्योक्ति के माध्यम से उद्धव और कृष्ण पर जो व्यंग्य किए एवं उपालम्भ दिए उसी को ’भ्रमरगीत’ के नाम से जाना गया। भ्रमरगीत प्रसंग में निर्गुण का खण्डन, सगुण का मण्डन तथा ज्ञान एवं योग की तुलना में प्रेम और भक्ति को श्रेष्ठ ठहराया गया है।

 

 

मधुप कितवबन्धो मा स्पृशाङ्घ्रिं सपत्न्याः

कुछ विलुलित माला कुङ्कुमश्मश्रुभिर्नः

वहतु मधु पतिस्तनमानिनीनां प्रसादं

यदुसदासि विडंब्यं यस्य दुतस्त्वमीदृक।। 12

 

गोपी ने कहा – रे मधुप ! तू कपटी का सखा है इसलिए तू भी कपटी है । तू हमारे पैरों को मत छू। झूठे प्रणाम करके हमसे अनुनय विनय मत कर । हम देख रहे हैं की श्री कृष्ण की जो वन माला हमारी सौतों के वक्षः स्थल के स्पर्श से मसली हुई है , उसका पीला पीला कुमकुम भी तेरी मूछों पर भी लगा हुआ है। तू स्वयं भी तो किसी कुसुम से प्रेम नहीं करता , यहाँ से वहां उदा करता है । जैसे तेरे स्वामी , वैसा ही तू । मधुपति श्री कृष्ण मथुरा की मानिनी नायिकाओं को मनाया करें , उनका वह कुंकुम रूप कृपा प्रसाद , जो यदुवंशियों की सभा में उपहास करने योग्य है , अपने ही पास रखें । उसे तेरे द्वारा यहाँ भेजने की क्या आवश्यकता है ?

 

सकृदधरसुधाम स्वाम मोहिनीं पाययित्वा

सुमनस इव सद्यस्तत्य जेस्मान भवादृक।

परिचरति कथं तत्पादपद्मम तु पद्मा

ह्यपि बत हृतचेता उत्तम श्लोक जल्पैः।। 13

 

जैसा तू काला है, वैसे ही वे भी हैं । तू भी पुष्पों का रस लेकर उड़ जाता है , वैसे ही वे भी निकले । उन्होंने हमे केवल एक बार – हाँ ऐसा ही लगता है – केवल एक बार अपनी तनिक सी मोहिनी और परम मादक अधर सुधा पिलाई थी और फिर हम भोली भाली गोपियों को छोड़कर वे यहाँ से चले गए । पता नहीं ; सुकुमारी लक्ष्मी उनके चरण कमलों की सेवा कैसे करती रहती हैं। अवश्य ही वे छैल छबीले कृष्ण की चिकनी चुपड़ी बातों में आ गई होंगी । चित चोर ने उनका भी चित्त चुरा लिया होगा।

 

किमिह बहु षडंगघ्रे गायसि त्वं यदूना –

मधि पतिम गृहाणामग्रतो नः पुराणम ।

विजय सख सखीनां गीयताम तात प्रसंगः

क्षपित कुछ रुजस्ते कल्प यन्तीष्ट मिष्टाः।। 14

 

अरे भ्रमर ! हम वन वासिनी हैं । हमारे तो घर – द्वार भी नहीं हैं । तू हम लोगो के सामने युदु वंश शिरोमणि श्री कृष्ण का बहुत सा गुण गान क्यों कर रहा है ? यह सब भला हम लोगों को मनाने के लिए ही तो ?  परन्तु नहीं नहीं , वे हमारे लिए कोई नए नहीं हैं । हमारे लिए तो जाने पहचाने , बिलकुल पुराने हैं । तेरी चापलूसी हमारे पास नहीं चलेगी । तू जा , यहाँ से चला जा और जिनके साथ विजय सदा रहती है उन श्री कृष्ण की मधुपुरवासिनी सखियों के सामने जाकर उनका गुणगान कर । वे नयी हैं, उनकी लीलाएं कम जानती हैं और इस समय वे उनकी प्यारी हैं; उनके ह्रदय की पीड़ा उन्होंने मिटा दी है । वे तेरी प्रार्थना स्वीकार करेंगी , तेरी चापलूसी से प्रसन्न हो कर तुझे मुँह मांगी वस्तु देंगी।

 

दिवि भुवि च रसायां काः स्त्रियस्तद्दुरापाः

कपट रुचिर हास भ्रूविजृम्भस्य याः स्युः ।

चरण रज उपास्ते यस्य भूतिर्वयं का

अपि च कृपण पक्षे ह्युत्तम श्लोक शब्दः ।। 15

 

भौंरे ! वे हमारे लिए छटपटा रहे हैं , ऐसा तू क्यों कहता है ? उनकी कपट भरी मनोहर मुस्कान और भौहों के इशारे से जो वश में न हो जायें , उनक पास दौड़ी न आएं – ऐसी कौन सी स्त्रियां हैं ? अरे अनजान ! स्वर्ग में , पाताल में और पृथ्वी में ऐसी एक भी स्त्री नहीं है । औरों की तो बात ही क्या , स्वयं लक्ष्मी जी भी उनके चरण रज की सेवा किया करती हैं। फिर हम श्री कृष्ण के लिए किस गिनती में हैं ? परन्तु तू उनके पास जाकर कहना की ‘ तुम्हारा नाम तो ‘ उत्तम श्लोक ‘ है , अच्छे अच्छे लोग तुम्हारी कीर्ति का गान करते हैं ; परन्तु इसकी सार्थकता तो इसी में है कि तुम दीनों पर दया करो । नहीं तो श्री कृष्ण ! तुम्हारा ‘ उत्तम श्लोक ‘ नाम झूठा पड़ जाता  है ।। 15

 

विसृज शिरसि पादं वेदम्य्हं चातु कारै-

रनुनय विदुषस्तेभ्येत्य दौत्यैर्मुकुन्दात ।

स्व कृत इह वि सृष्टा पत्यपत्यन्य लोका

व्य सृजद कृत चेताः किं नु सन्धेय मस्मिन।। 16

 

अरे मधुकर ! देख , तू मेरे पैर पर सिर मत टेक। मैं जानती हूँ कि तू अनुनय विनय करने में , क्षमा याचना करने में बड़ा निपुण है । मालूम होता है तू श्री कृष्ण से ही यही सीख कर आया है कि रूठे हुए को मनाने के लिए दूत को – सन्देश वाहक को कितनी चाटुकारिता करनी चाहिए । परन्तु तू समझ ले कि यहाँ तेरी दाल नहीं गलने की। देख , हमने श्री कृष्ण के लिए ही अपने पति , पुत्र और दूसरे लोगों को छोड़ दिया । परन्तु उनमे तनिक भी कृतज्ञता नहीं । वे ऐसे निर्मोही निकले कि हमें छोड़ कर चलते बने । अब तू ही बता , ऐसे अकृतज्ञ के साथ हम क्या संधि करें ? क्या तू अब भी कहता है कि उन पर विश्वास करना चाहिए ? 16

 

मृग युरिव कपीन्द्रं विव्यधे लुब्ध धर्मा

स्त्रियं कृत विरूपां स्त्री जितः काम यानाम।

बलिमपि बलि मत्त्वा वेष्ट्यद ध्वांक्ष वद यस्त

दल मसित सख्यैर्दुस्त्य जस्तत्कथार्थः ।। 17

 

ऐ रे मधुप ! जब वे राम बने थे , तब उन्होंने कपिराज बालि को व्याध के सामान छिप कर बड़ी निर्दयता से मारा था । बेचारी शूर्पणखा कामवश उनके पास आयी थी , परन्तु उन्होंने अपनी स्त्री के वश होकर उस बेचारी के नाक कान काट लिए और इस प्रकार उसे कुरूप बना दिया । ब्राह्मण के घर वामन के रूप में जन्म ले कर उन्होंने क्या किया ? बलि ने तो उनकी पूजा की, उनकी मुंहमांगी वस्तु दी और उन्होंने उसकी पूजा ग्रहण कर के भी उसे वरुण पाश से बाँध कर पाताल में डाल दिया । ठीक वैसे ही , जैसे कौआ बलि खा कर भी बलि देने वाले को अपने अन्य साथियों के साथ मिल कर घेर लेता है और परेशान करता है। अच्छा , तो अब जाने दे ; हमें श्री कृष्ण से क्या , किसी भी काली वस्तु के साथ मित्रता से कोई प्रयोजन नहीं है परन्तु यदि तू ये कहे कि ‘ जब ऐसा है तब तुम लोग उनकी चर्चा क्यों करती हो ? ‘ तो भ्रमर ! हम सच कहती हैं , एक बार जिसे उसका ( कृष्ण का ) चस्का लग जाता है , वह उसे छोड़ नहीं सकता । ऐसी दशा में हम चाहने पर भी उनकी चर्चा छोड़ नहीं सकते । 

 

यदनु चरित लीला कर्ण पीयूष विप्रुट

सकृद दन विधूत द्वन्द्व धर्मा विनष्टाः ।

सपदि गृह कुटुम्बं दीन मुत्सृज्य दीना

बहव इह विहंगा भिक्षुचर्यां चरन्ति ।। 18

 

श्री कृष्ण की लीला रूप कर्णामृत के एक कण का भी जो रसास्वादन कर लेता है , उसके राग-द्वेष , सुख – दुःख आदि सारे द्वन्द्व छूट जाते हैं । यहाँ तक कि बहुत से लोग तो अपनी दुःखमय – दुःख से सनी हुई घर गृहस्थी को छोड़ कर अकिंचन हो जाते हैं , अपने पास कुछ भी संग्रह – परिग्रह नहीं रखते और पक्षियों की तरह चुन चुन कर – भीख मांग कर अपना पेट भरते हैं , दीन दुनिया से जाते रहते हैं । फिर भी श्री कृष्ण की लीला कथा नहीं छोड़ पते । वास्तव में उसका रस , उसका चस्का ऐसा ही है । यही दशा हमारी हो रही है ।

 

वयमृतमिव जिह्मव्याहृतं श्रद्दधानः

कुलि करत मिवाज्ञाः कृष्ण वध्वो हरिण्यः ।

ददृशुरस कृदेतत्तन्नखस्पर्श तीव्र –

स्मररुज उपमन्त्रिन भण्यतामन्यवार्ता ।। 19

 

जैसे कृष्ण सार मृग की पत्नी भोली – भाली हरिनियाँ व्याध के सुमधुर गान का विश्वास कर लेती हैं और उसके जाल में फंसकर मारी जाती हैं , वैसे ही हम भोली भली गोपियाँ भी उस छलिया कृष्ण की कपट भरी मीठी मीठी बातों में आकर उन्हें सत्य के समान मान बैठीं और उनके नख स्पर्श से होने वाली अनुभूति का अनुभव करती रहीं। इसलिए श्रीकृष्ण के दूत भौंरे ! अब इस विषय में तू और कुछ मत कह । तुझे कहना ही हो तो कोई दूसरी बात कह ।

 

प्रियसख पुनरागाः प्रेयसा प्रेषितः किं

वरय किमनुरुन्धे माननी यो असि में अंग ।

नयसी काठ मिहास्मान दुस्त्यज द्वन्द्व पार्श्वं

सतत मुरसि सौम्य श्रीर्वधूः साकमास्ते ।। 20

 

हमारे प्रियतम के प्यारे सखा ! जान पड़ता है तुम एक बार उधर जा कर फिर लौट आये हो । अवश्य ही हमारे प्रियतम ने मनाने के लिए तुम्हें भेजा होगा । प्रिय भ्रमर ! तुम सब प्रकार से हमारे माननीय हो । कहो , तुम्हारी क्या इच्छा है ?  हमसे जो चाहे सो मांग लो । अच्छा , तुम सच बताओ , क्या हमें वहां ले चलना चाहते हो ? अजी , उनके पास जाकर लौटना बड़ा कठिन है । हम तो उनके पास जा चुके हैं । परन्तु तुम हमें वह ले जाकर करोगे क्या ? प्यारे भ्रमर ! उनके साथ – उनके वक्ष स्थल पर तो उनकी प्यारी पत्नी लक्ष्मी जी सदा रहती हैं न ? तब वहां हमारा निर्वाह कैसे होगा ।।

 

अपि बत मधु पुर्या मार्य पुत्रो अधुना अस्ते

स्मरति स पितृगेहान सौम्य बन्धूंश्च गोपान

क्वचिदपि स कथा नः किंकरीणां गृणीते

भुजमगुरुसुगन्धं मूर्धन्यधास्यत कदा नु ।। 21

 

अच्छा , हमारे प्रियतम के प्यारे दूत मधुकर ! हमें यह बतलाओ कि आर्यपुत्र भगवान श्री कृष्ण गुरुकुल से लौट कर मधुपुरी में अब सुख से तो है न ? क्या वे कभी नन्द बाबा , यशोदा रानी , यहाँ के घर , सगे सम्बन्धी और ग्वाल बालों को भी याद करते हैं ? और क्या हम दासियों कि भी कोई बात चलते हैं ? प्यारे भ्रमर ! हमें यह भी बतलाओ कि कभी वे अपनी अगर के समान दिव्य सुगंध से युक्त भुजा हमारे सिरों पर रखेंगे ? क्या हमारे जीवन में कभी ऐसा सुअवसर आएगा ?

 

श्री शुक उवाच

अथोद्धवो निशम्यैवं कृष्ण दर्शन लालसाः ।

सान्त्वयन प्रिय संदेशैर्गोपीरिदम भाषत ।। 22

 

श्री शुकदेव जी कहते हैं – परीक्षित ! गोपियाँ भगवान श्री कृष्ण के दर्शन के लिए अत्यंत उत्सुक – लालायित हो रही थीं, उनके लिए तड़प रही थीं । उनकी बातें सुनकर उद्धव जी सुनकर उद्धव जी ने उन्हें उनके प्रियतम का सन्देश सुनाकर सांत्वना देते हुए इस प्रकार कहा ।। 22

 

 

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उद्धव जी ने कहा – अहो गोपियों ! तुम कृतकृत्य हो । तुम्हारा जीवन सफल है । देवियों ! तुम सारे संसार के लिए पूजनीय हो ; क्यों कि तुम लोगों ने इस प्रकार भगवान् श्री कृष्ण को अपना ह्रदय , अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया है ।।

दान , व्रत , तप , होम , जप , वेदाध्ययन , ध्यान , धारणा , समाधि और कल्याण के अन्य विविध साधनों के द्वारा भगवान कि भक्ति प्राप्त हो , यही प्रयत्न किया जाता है ।।

यह बड़े सौभाग्य कि बात है कि तुम लोगों ने पवित्र कीर्ति भगवान श्री कृष्ण के प्रति वही सर्वोत्तम प्रेम भक्ति प्राप्त कि है और उसी का आदर्श स्थापित किया है , जो बड़े बड़े ऋषि – मुनियों के लिए भी अत्यंत दुर्लभ है ।।

सचमुच यह कितने सौभाग्य कि बात है कि तुमने अपने पुत्र , पति, देह , स्वजन और घरों को छोड़ कर पुरुषोत्तम भगवान श्री कृष्ण को , जो सबके परम पति हैं , पति के रूप में वरण किया है ।

महाभाग्यवती गोपियों ! भगवान् श्री कृष्ण के वियोग से तुमने उन इन्द्रियातीत परमात्मा के प्रति वह भाव प्राप्त कर लिया है , जो सभी वस्तुओं के रूप में उनका दर्शन कराता है । तुम लोगों का वह भाव मेरे सामने भी प्रकट हुआ , यह मेरे ऊपर तुम देवियों कि बड़ी ही दया है ।।

मैं अपने स्वामी का गुप्त काम करने वाला दूत हूँ । तुम्हारे प्रियतम भगवान् श्री कृष्ण ने तुम लोगों को परम सुख देने के लिए यह प्रिय सन्देश भेजा है। कल्याणियों ! वही लेकर मैं तुम लोगों के पास आया हूँ , अब उसे सुनो ।

 

 

bhramar geet by Gopis

 

 

भगवान श्री कृष्ण ने कहा है – मैं सबका अनुगत आत्मा हूँ , सबमे अनुगत हूँ ; इसलिए मुझसे कभी भी तुम्हारा वियोग नहीं हो सकता । जैसे संसार के सभी भौतिक पदार्थों में आकाश , वायु , अग्नि , जल और पृथ्वी – ये पांच भूत व्याप्त हैं , इन्हीं से सब वस्तुएं बानी हैं , और यही उन वस्तुओं के रूप में हैं । वैसे ही मैं मन , प्राण , पांच भूत , इन्द्रिय और उनके विषयों का आश्रय हूँ । वे मुझमे हैं , मैं उनमे हूँ और सच पूछो मैं ही उनके रूप में प्रकट हो रहा हूँ ।।

मैं ही अपनी माया के द्वारा भूत , इन्द्रिय और उनके विषयों के रूप में हो कर उनका आश्रय बन जाता हूँ  तथा स्वयं निमित्त बनकर अपने आपको ही रचता हूँ , पालता हूँ , और समेत लेता हूँ ।

आत्मा माया और माया के कार्यों से पृथक है । वह विशुद्ध ज्ञान स्वरुप , जड़ प्रकृति , अनेक जीव तथा अपने ही अवांतर भेदों से रहीं सर्वथा शुद्ध है । कोई भी गुण उसका स्पर्श नहीं कर पाते। माया कि तीन वृत्तियाँ हैं – सुषुप्ति , स्वप्न और जाग्रत । इनके द्वारा वही अखंड , अनंत बोध स्वरुप आत्मा कभी प्राज्ञ , तो कभी तैजस और कभी विश्व रूप से प्रतीत होता है ।।

मनुष्य को चाहिए कि वह समझे कि स्वप्न में दीखने वाले पदार्थों के समान ही जाग्रत अवस्था में इन्द्रियों के विषयों का चिंतन करने वाले मन और इन्द्रियों को रोक ले और मानो सोकर उठा हो , इस प्रकार जगत के स्वाप्निक विषयों को त्याग कर मेरा साक्षात्कार करे ।

जिस प्रकार सभी नदियां घूम फिर कर समुद्र में ही पहुँचती हैं , उसी प्रकार मनस्वी पुरुषों का वेदाभ्यास , योग साधन , आत्मा नात्म , विवेक , त्याग , तपस्या , इन्द्रिय संयम और सत्य आदि समस्त धर्म , मेरी प्राप्ति में ही समाप्त होते हैं । सबका सच्चा फल है मेरा साक्षात्कार ; क्योकि वे सब मन को निरुद्ध करके मेरे पास पहुंचते हैं ।

गोपियों इसमें संदेह नहीं है कि मैं तू, तुम्हारे नयनों का ध्रुव तारा हूँ । तुम्हारा जीवन सर्वस्व हूँ । किन्तु मैं जो तुमसे इतना दूर रहता हूँ , उसका कारण है । वह यही कि तुम निरंतर मेरा ध्यान कर सको , शरीर से दूर रहने पर भी मन से तुम मेरी सन्निधि का अनुभव करो , अपना मन मेरे पास रखो ।

क्योंकि स्त्रियों और अन्यान्य प्रेमियों का चित्त अपने परदेसी प्रियतम में जितना निश्छल भाव से लगा रहता है , उतना आँखों के सामने , पास रहने वाले प्रियतम में नहीं लगता ।।

अशेष वृत्तियों से रहित सम्पूर्ण मन मुझमें लगा कर जब तुम लोग मेरा अनुस्मरण करोगी , तब शीघ्र ही सदा के लिए मुझे प्राप्त हो जाओगी ।।

कल्याणियों ! जिस समय मैंने वृन्दावन में शारदीय पूर्णिमा की रात्रि में रास क्रीड़ा की थी उस समय जो गोपियाँ स्वजनों के रोक लेने से व्रज में ही रह गयीं थीं – मेरे साथ रास विहार में सम्मिलित न हो सकीं , वे मेरी लीलाओं का स्मरण करने से ही मुझे प्राप्त हो गईं थीं । ( तुम्हें भी मैं अवश्य ही मिलूंगा , निराश होने की कोई बात नहीं है )

 

श्री शुकदेव जी कहते हैं

 

परीक्षित ! अपने प्रियतम श्री कृष्ण का यह संदेशा सुन कर गोपियों को बड़ा आनंद हुआ उनके सन्देश से उन्हें श्री कृष्ण के स्वरूप और एक एक लीला की याद आने लगी ।

 

 

 

 

 

 

 

 

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