Chapter 3 Bhagavad Gita Karm Yog

 

 

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कर्मयोग ~ अध्याय तीन

17-24 ज्ञानवानऔर भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता

 

 

Karm Yog chapter 3 Bhagavad Gita

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः।।3.19।।

 

तस्मात्-अतः; असक्तः-आसक्ति रहित; सततम्-निरन्तर; कार्यम्-कर्त्तव्यं; कर्म-कार्य; समाचर-निष्पादन करना; असक्तो:-आसक्तिरहित; हि-निश्चय ही; आचरन्-निष्पादन करते हुए; कर्म-कार्य; परम-सर्वोच्च भगवान; आप्नोति–प्राप्त करता है; पुरुषः-पुरुष, मनुष्य।

 

इसलिये तू निरन्तर आसक्तिरहित होकर कर्तव्य-कर्मका भलीभाँति आचरण कर; क्योंकि आसक्तिरहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्माको प्राप्त हो जाता है ।।3.19।।

 

( “तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ” पूर्वश्लोकों से इस श्लोक का सम्बन्ध बताने के लिये यहाँ तस्मात् पद आया है। पूर्वश्लोकों में भगवान ने कहा कि अपने लिये कर्म करने की कोई आवश्यकता न रहने पर भी सिद्ध महापुरुष के द्वारा लोकसंग्रहार्थ क्रियाएं हुआ करती हैं। इसलिये अर्जुन को भी उसी तरह (निष्कामभाव से) कर्तव्यकर्म करते हुए परमात्मा को प्राप्त करने की आज्ञा देने के लिये भगवान ने ‘तस्मात् ‘ पद का प्रयोग किया है। कारण कि अपने स्वरूप स्व के लिये कर्म करने और न करने से कोई प्रयोजन नहीं है। कर्म सदैव पर (दूसरों ) के लिये होता है स्व के लिये नहीं। अतः दूसरों के लिये कर्म करने से कर्म करने का राग मिट जाता है और स्वरूप में स्थिति हो जाती है।अपने स्वरूप से विजातीय (जड) पदार्थों के प्रति आकर्षण को आसक्ति कहते हैं। आसक्तिरहित होने के लिये आसक्ति के कारण को जानना आवश्यक है। मैं शरीर हूँ और शरीर मेरा है ऐसा मानने से शरीरादि नाशवान पदार्थों का महत्त्व अन्तःकरण में अङ्कित हो जाता है। इसी कारण उन पदार्थों में आसक्ति हो जाती है। आसक्ति ही पतन करने वाली है कर्म नहीं। आसक्ति के कारण ही मनुष्य , शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि जड पदार्थों से अपना सम्बन्ध मानकर अपने आराम सुख-भोग के लिये तरह-तरह के कर्म करता है। इस प्रकार जडता से आसक्तिपूर्वक माना हुआ सम्बन्ध ही मनुष्य के बारम्बार जन्म-मरण का कारण होता है “कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ” (गीता 13। 21)। आसक्तिरहित होकर कर्म करने से जडता से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है।आसक्ति वाला मनुष्य दूसरों का हित नहीं कर सकता जबकि आसक्तिरहित मनुष्य से स्वतःस्वाभाविक प्राणिमात्र का हित होता है। उसके सभी कर्म केवल दूसरों के हितार्थ होते हैं। संसार से प्राप्त सामग्री (शरीरादि ) से हमने अभी तक अपने लिये ही कर्म किये हैं। उसको अपने ही सुख भोग और संग्रह में लगाया है। इसलिये संसार का हमारे पर ऋण है जिसे उतारने के लिये केवल संसार के हित के लिये कर्म करना आवश्यक है। अपने लिये (फल की कामना रखकर) कर्म करने से पुराना ऋण तो समाप्त होता नहीं , नया ऋण और उत्पन्न हो जाता है। ऋण से मुक्त होने के लिये बारबार संसार में आना पड़ता है। केवल दूसरों के हित के लिये सब कर्म करने से पुराना ऋण समाप्त हो जाता है और अपने लिये कुछ न करने तथा कुछ न चाहने से नया ऋण उत्पन्न नहीं होता। इस तरह जब पुराना ऋण समाप्त हो जाता है और नया ऋण उत्पन्न नहीं होता तब बन्धन का कोई कारण न रहने से मनुष्य स्वतः मुक्त हो जाता है। कोई भी कर्म निरन्तर नहीं रहता पर आसक्ति (अन्तःकरण में) निरन्तर रहा करती है इसलिये भगवान् “सततम् असक्तः” पदों से निरन्तर आसक्तिरहित होने के लिये कहते हैं। मेरे को कहीं भी आसक्त नहीं होना है – ऐसी जागृति साधक को निरन्तर रखनी चाहिये। निरन्तर आसक्तिरहित रहते हुए जो विहितकर्म सामने आ जाय उसे कर्तव्यमात्र समझकर कर देना चाहिये -ऐसा उपर्युक्त पदों का भाव है।वास्तव में देखा जाय तो किसी के भी अन्तःकरण में आसक्ति निरन्तर नहीं रहती। जब संसार निरन्तर नहीं रहता , प्रतिक्षण बदलता रहता है तब उसकी आसक्ति निरन्तर कैसे रह सकती है ? ऐसा होते हुए भी माने हुए अहं के साथ आसक्ति निरन्तर रहती हुई प्रतीत होती है। “कार्यम्” अर्थात् कर्तव्य उसे कहते हैं जिसको कर सकते हैं और जिसको अवश्य करना चाहिये। दूसरे शब्दों में कर्तव्य का अर्थ होता है अपने स्वार्थ का त्याग करके दूसरों का हित करना अर्थात् दूसरों की उस शास्त्रविहित न्याययुक्त माँग को पूरा करना जिसे पूरा करने की सामर्थ्य हमारे में है। इस प्रकार कर्तव्य का सम्बन्ध परहित से है। कर्तव्य का पालन करने में सब स्वतन्त्र और समर्थ हैं , कोई पराधीन और असमर्थ नहीं है। हाँ , प्रमाद और आलस्य के कारण अकर्तव्य करने का बुरा अभ्यास (आदत) हो जाने से तथा फल की इच्छा रहनेसे ही वर्तमान में कर्तव्यपालन कठिन मालूम देता है अन्यथा कर्तव्यपालन के समान सुगम कुछ नहीं है। कर्तव्य का सम्बन्ध परिस्थिति के अनुसार होता है। मनुष्य प्रत्येक परिस्थिति में स्वतन्त्रतापूर्वक कर्तव्य का पालन कर सकता है। कर्तव्य का पालन करने से ही आसक्ति मिटती है। अकर्तव्य करने तथा कर्तव्य न करने से आसक्ति और बढ़ती है। कर्तव्य अर्थात् दूसरों के हितार्थ कर्म करने से वर्तमान की आसक्ति और कुछ न चाहने से भविष्य की आसक्ति मिट जाती है। समाचर पद का तात्पर्य है कि कर्तव्यकर्म बहुत सावधानी , उत्साह तथा तत्परता से विधिपूर्वक करने चाहिये। कर्तव्यकर्म करने में थोड़ी भी असावधानी होने पर कर्मयोग की सिद्धि में बाधा लग सकती है।वर्ण , आश्रम , प्रकृति (स्वभाव) और परिस्थिति के अनुसार जिस मनुष्य के लिये जो शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म बताया गया है अवसर प्राप्त होने पर उसके लिये वही सहज कर्म है। सहज कर्म में यदि कोई दोष दिखायी दे तो भी उसका त्याग नहीं करना चाहिये (गीता 18। 48) क्योंकि सहज कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता (गीता 18। 47) इसीलिये यहाँ भगवान अर्जुन को मानो यह कह रहे हैं कि तू क्षत्रिय है अतः युद्ध करना (घोर दिखने पर भी) तेरा सहज कर्म है घोर कर्म नहीं। अतः सामने आये हुए सहज कर्म को अनासक्त होकर कर देना चाहिये। अनासक्त होने पर ही समता प्राप्त होती है। जब जीव मनुष्य योनि में लेता है तब उसको शरीर , धन , जमीन , मकान आदि सब सामग्री मिलती है और जब वह यहाँ से जाता है तब सब सामग्री यहीं छूट जाती है। इस सीधी-सादी बात से यह सहज ही सिद्ध होता है कि शरीरादि सब सामग्री मिली हुई है अपनी नहीं है। जैसे मनुष्य काम करने के लिये किसी कार्यालय (आफिस) में जाता है तो उसे कुर्सी , मेज , कागज आदि सब सामग्री कार्यालय का काम करने के लिये ही मिलती है – अपनी मानकर घर ले जाने के लिये नहीं। ऐसे ही मनुष्य को संसार में शरीरादि सब सामग्री संसार का काम (सेवा) करने के लिये ही मिली है अपनी मानने के लिये नहीं। मनुष्य तत्परता और उत्साहपूर्वक कार्यालय का काम करता है तो उस काम के बदले में उसे वेतन मिलता है। काम कार्यालय के लिये होता है और वेतन अपने लिये। इसी प्रकार संसार के लिये ही सब काम करने से संसार से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और योग (परमात्मा के साथ अपने नित्य सम्बन्ध ) का अनुभव हो जाता है। कर्म और योग दोनों मिलकर कर्मयोग कहलाता है। कर्म संसार के लिये होता है और योग अपने लिये। यह योग ही मानो वेतन है। संसार साधन का क्षेत्र है। यहाँ प्रत्येक सामग्री साधन के लिये मिलती है , भोग और संग्रह के लिये कदापि नहीं। सांसारिक सामग्री अपनी और अपने लिये है ही नहीं। अपनी वस्तु परमात्मतत्त्व मिलने पर फिर अन्य किसी वस्तु को पाने की इच्छा नहीं रहती (गीता 6। 22) परन्तु सांसारिक वस्तुएँ चाहे जितनी प्राप्त हो जायँ पर उन्हें पाने की इच्छा कभी मिटती नहीं बल्कि और बढ़ती है। जब मनुष्य मिली हुई वस्तु को अपनी और अपने लिये मान लेता है तब वह अपनी इस भूल के कारण बँध जाता है। इस भूल को मिटाने के लिये कर्मयोग का अनुष्ठान ही सुगम और श्रेष्ठ उपाय है। कर्मयोगी किसी भी वस्तु को अपनी और अपने लिये न मानते हुए उसे दूसरों की सेवा में (उन्हीं की मानकर) लगाता है। अतः वह सुगमतापूर्वक संसारबन्धन से मुक्त हो जाता है। कर्म तो सभी प्राणी किया करते हैं पर साधारण प्राणी और कर्मयोगी द्वारा किये गये कर्मों में बड़ा भारी अन्तर होता है। साधारण मनुष्य (कर्मी) आसक्ति , ममता , कामना आदि को साथ रखते हुए कर्म करता है और कर्मयोगी आसक्ति , ममता , कामना आदि को छोड़कर कर्म करता है। कर्मी के कर्मों का प्रवाह अपनी तरफ होता है और कर्मयोगी के कर्मों का प्रवाह संसार की तरफ। इसलिये कर्मी बँधता है और कर्मयोगी मुक्त होता है। “असक्तो ह्याचरन्कर्म ” मनुष्य ही आसक्तिपूर्वक संसार से अपना सम्बन्ध जोड़ता है संसार नहीं। अतः मनुष्य का कर्तव्य है कि वह संसार के हित के लिये ही सब कर्म करे और बदले में उनका कोई फल न चाहे। इस प्रकार आसक्तिरहित होकर अर्थात् मुझे किसी से कुछ नहीं चाहिये इस भाव से संसार के लिये कर्म करने से संसार से स्वतः सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। कर्मयोगी संसार की सेवा करने से वर्तमान की वस्तुओं से और कुछ न चाहने से भविष्य की वस्तुओं से सम्बन्ध-विच्छेद करता है। मेले में स्वयंसेवक अपना कर्तव्य समझकर दिन भर यात्रियों की सेवा करते हैं और बदले में किसी से कुछ नहीं चाहते अतः रात्रि में सोते समय उन्हें किसी की याद नहीं आती। कारण कि सेवा करते समय उन्होंने किसी से कुछ चाहा नहीं। इसी प्रकार जो सेवाभाव से दूसरों के लिये ही सब कर्म करता है और किसी से मान -बड़ाई आदि कुछ नहीं चाहता उसे संसार की याद नहीं आती। वह सुगमतापूर्वक संसारबन्धन से मुक्त हो जाता है।कर्म तो सभी किया करते हैं पर कर्मयोग तभी होता है जब आसक्तिरहित होकर दूसरों के लिये कर्म किये जाते हैं। आसक्ति शास्त्रहित कर्तव्यकर्म करने से ही मिट सकती है – “धर्म तें बिरति ” (मानस 3। 16। 1)। शास्त्रनिषिद्ध कर्म करने से आसक्ति कभी नहीं मिट सकती। “परमाप्नोति पुरुषः” जैसे 13वें अध्याय के 34वें श्लोक में भगवान ने ‘परम’ पद से सांख्ययोगी के परमात्मा को प्राप्त होने की बात कही । ऐसी ही यहाँ परम पद से कर्मयोगी के परमात्मा को प्राप्त होने की बात कहते हैं। तात्पर्य यह है कि साधक (रुचि , विश्वास और योग्यता के अनुसार) किसी भी मार्ग कर्मयोग , ज्ञानयोग या भक्तियोग पर क्यों न चले उसके द्वारा प्राप्तव्य वस्तु एक परमात्मा ही हैं (गीता 5। 45)। प्राप्तव्य तत्त्व वही हो सकता है जिसकी प्राप्ति में विकल्प , सन्देह और निराशा न हो तथा जो सदा हो , सब देश में हो , सब काल में हो , सभी के लिये हो , सबका अपना हो और जिस तत्त्व से कोई कभी किसी अवस्था में किञ्चिन्मात्र भी अलग न हो सके अर्थात् जो सबको सदा अभिन्न रूप से स्वतः प्राप्त हो। शङ्का – कर्म करते हुए कर्मयोगी का कर्तृत्वाभिमान कैसे मिट सकता है क्योंकि कर्तृत्वाभिमान मिटे बिना परमात्मतत्त्वका अनुभव नहीं हो सकता ? समाधान – साधारण मनुष्य सभी कर्म अपने लिये करता है। अपने लिये कर्म करने से मनुष्य में कर्तृत्वाभिमान रहता है। कर्मयोगी कोई भी क्रिया अपने लिये नहीं करता। वह ऐसा मानता है कि संसार से शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , पदार्थ , रुपये आदि जो कुछ सामग्री मिली है वह सब संसार की ही है अपनी नहीं। जब कभी अवसर मिलता है तभी वह सामग्री , समय , सामर्थ्य आदि को संसार की सेवा में लगा देता है उनको संसार की सेवा में लगाते हुए कर्मयोगी ऐसा मानता है कि संसार की वस्तु ही संसार की सेवा में लगा रहा हूँ अर्थात् सामग्री , समय , सामर्थ्य आदि उन्हीं के हैं जिनकी सेवा हो रही है। ऐसा मानने से कर्तृत्वाभिमान नहीं रहता। कर्तृत्व में कारण है भोक्तृत्व। कर्मयोगी भोग की आशा रखकर कर्म करता ही नहीं। भोग की आशा वाला मनुष्य कर्मयोगी नहीं होता। जैसे अपने हाथों से अपना ही मुख धोने पर यह भाव नहीं आता कि मैंने बड़ा उपकार किया है क्योंकि मनुष्य हाथ और मुख दोनों को अपने ही अंग मानता है ऐसे ही कर्मयोगी भी शरीर को संसार का ही अङ्ग मानता है। अतः यदि अङ्ग ने अङ्गी की ही सेवा की है तो उसमें कर्तृत्वाभिमान कैसा ? यह नियम है कि मनुष्य जिस उद्देश्य को लेकर कर्म में प्रवृत्त होता है कर्म के समाप्त होते ही वह उसी लक्ष्य में तल्लीन हो जाता है। जैसे व्यापारी धन के उद्देश्य से ही व्यापार करता है तो दुकान बंद करते ही उसका ध्यान स्वतः रुपयों की ओर जाता है और वह रुपये गिनने लगता है। उसका ध्यान इस और नहीं जाता कि आज कौन-कौन ग्राहक आये , किस-किस जाति के आये आदि-आदि। कारण कि ग्राहकों से उसका कोई प्रयोजन नहीं। संसार का उद्देश्य रखकर कर्म करने वाला मनुष्य संसार में कितना ही तल्लीन क्यों न हो जाय पर उसकी संसार से एकता नहीं हो सकती क्योंकि वास्तव में संसार से एकता है ही नहीं। संसार प्रतिक्षण परिवर्तनशील और जड है जबकि स्वयं (अपना स्वरूप) अचल और चेतन है। परन्तु परमात्मा का उद्देश्य रखकर कर्म करने वाले की परमात्मा से एकता हो ही जाती है (चाहे साधक को इसका अनुभव हो या न हो) क्योंकि स्वयं की परमात्मा के साथ स्वतःसिद्ध (तात्त्विक) एकता है। इस प्रकार जब कर्ता कर्तव्य बनकर अपने उद्देश्य(परमात्मतत्त्व) के साथ एक हो जाता है तब कर्तृत्वाभिमान का प्रश्न ही नहीं रहता। कर्मयोगी जिस उद्देश्य परमात्मतत्त्व की प्राप्ति के लिये सब कर्म करता है उस (परमात्मतत्त्व) में कर्तृत्वाभिमान अथवा कर्तृत्व (कर्तापन) नहीं है। अतः प्रत्येक क्रिया के आदि और अन्त में उस उद्देश्य के साथ एकता का अनुभव होने के कारण कर्मयोगी में कर्तृत्वाभिमान नहीं रहता। प्राणिमात्रके द्वारा किये हुए प्रत्येक कर्म का आरम्भ और अन्त होता है। कोई भी कर्म निरन्तर नहीं रहता। अतः किसी का भी कर्तृत्व निरन्तर नहीं रहता बल्कि कर्म का अन्त होने के साथ ही कर्तृत्व का भी अन्त हो जाता है परन्तु मनुष्य से भूल यह होती है कि जब वह कोई क्रिया करता है तब तो अपने को उस क्रिया का कर्ता मानता ही है पर जब उस क्रिया को नहीं करता तब भी अपने को वैसा ही कर्ता मानता रहता है। इस प्रकार अपने को निरन्तर कर्ता मानते रहनेसे  उसका कर्तृत्वाभिमान मिटता नहीं बल्कि दृढ़ होता है। जैसे कोई पुरुष व्याख्यान देते समय तो वक्ता (व्याख्यानदाता ) होता है पर जब दूसरे समय में भी वह अपने को वक्ता मानता रहता है तब उसका कर्तृत्वाभिमान नहीं मिटता। अपने को निरन्तर व्याख्यानदाता मानने से ही उसके मन में यह भाव आता है कि श्रोता मेरी सेवा करें , मेरा आदर करें , मेरी आवश्यकताओं की पूर्ति करें और मैं इन साधारण आदमियों के पास कैसे बैठ सकता हूँ ?मैं यह साधारण काम कैसे कर सकता हूँ ? आदि। इस प्रकार उसका व्याख्यानरूप कर्म के साथ निरन्तर सम्बन्ध बना रहता है। इसका कारण है व्याख्यानरूप कर्म से धन , मान , बड़ाई ,आराम आदि कुछ न कुछ पाने का भाव होना। यदि अपने लिये कुछ भी पाने का भाव न रहे तो कर्तापन केवल कर्म करने तक ही सीमित रहता है और कर्म समाप्त होते ही कर्तापन अपने उद्देश्य में लीन हो जाता है। जैसे मनुष्य भोजन करते समय ही अपने को उसका भोक्ता अर्थात् भोजन करने वाला मानता है भोजन करने के बाद नहीं ऐसे ही कर्मयोगी किसी क्रिया को करते समय ही अपने को उस क्रिया का कर्ता मानता है अन्य समय नहीं। जैसे कर्मयोगी व्याख्यानदाता है और लोगों में उसकी बहुत प्रतिष्ठा है परन्तु कभी व्याख्यान सुनने का काम पड़ जाय तो वह कहीं भी बैठकर सुगमतापूर्वक व्याख्यान सुन सकता है। उस समय उसे न आदर की आवश्यकता है , न ऊँचे आसन की क्योंकि तब वह अपने को श्रोता मानता है व्याख्यानदाता नहीं। कभी व्याख्यान देने के बाद उसे कोई कमरा साफ करने का काम प्राप्त हो जाय तो वह उस काम को वैसी ही तत्परता से करता है जैसी तत्परता से वह व्याख्यान देने का कार्य करता है। उसके मन में थोड़ा भी यह भाव नहीं आता कि इतना बड़ा व्याख्यानदाता होकर मैं यह कमरा सफाई का तुच्छ काम कैसे कर सकता हूँ ? लोग क्या कहेंगे ?मेरी इज्जत धूल में मिल जायगी इत्यादि। वह अपने को व्याख्यान देते समय व्याख्यानदाता , कथा-श्रवण के समय श्रोता और कमरा साफ करते समय कमरा साफ करने वाला मानता है। अतः उसका कर्तृत्वाभिमान निरन्तर नहीं रहता। जो वस्तु निरन्तर नहीं रहती अपितु बदलती रहती है वह वास्तव में नहीं होती और उसका सम्बन्ध भी निरन्तर नहीं रहता यह सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त पर दृष्टि जाते ही साधक को वास्तविका (कर्तृत्वाभिमान से रहित स्वरूप) का अनुभव हो जाता है। कर्मयोगी सब क्रियाएँ उसी भाव से करता है जिस भाव से नाटक में एक स्वाँगधारी पात्र करता है। जैसे नाटक में हरिश्चन्द्र का स्वाँग नाटक (खेल ) के लिये ही होता है और नाटक समाप्त होते ही हरिश्चन्द्ररूप-स्वाँग का स्वाँग के साथ ही त्याग हो जाता है ऐसे ही कर्मयोगी का कर्तापन भी स्वाँग के समान केवल क्रिया करने तक ही सीमित रहता है। जैसे नाटक में हरिश्चन्द्र बना हुआ व्यक्ति हरिश्चन्द्र की सब क्रियाएँ करते हुए भी वास्तव में अपने को उन क्रियाओं का कर्ता (वास्तविक हरिश्चन्द्र) नहीं मानता ऐसे ही कर्मयोगी शास्त्रविहित सम्पूर्ण कर्मों को करते हुए भी वास्तव में अपने को उन क्रियाओं का कर्ता नहीं मानता। कर्मयोगी शरीरादि सब पदार्थों को स्वाँग की तरह अपना और अपने लिये न मानकर उन्हें (संसार का मानते हुए) संसार की ही सेवा में लगाता है। अतः किसी भी अवस्था में कर्मयोगी में किञ्चिन्मात्र भी कर्तृत्वाभिमान नहीं रह सकता। कर्मयोगी जैसे कर्तृत्व को अपने में निरन्तर नहीं मानता ऐसे ही माता-पिता , स्त्री-पुत्र भाई-भौजाई आदि के साथ अपना सम्बन्ध भी निरन्तर नहीं मानता। केवल सेवा करते समय ही उसके साथ अपना सम्बन्ध (सेवा करनेके लिये ही) मानता है। जैसे यदि कोई पति है तो पत्नी के लिये पति है अर्थात् पत्नी कर्कशा हो , कुरूपा हो , कलह करने वाली हो पर उसे पत्नी-रूप में स्वीकार कर लिया तो अपनी योग्यता सामर्थ्य के अनुसार उसका भरण-पोषण करना पति का कर्तव्य है। पति के नाते उसके सुधार की बात कह देनी है चाहे वह माने या न माने। हर समय अपने को पति नहीं मानना है क्योंकि इस जन्म से पहले वह पत्नी थी इसका क्या पता और मरने के बाद भी वह पत्नी रहेगी इसका भी क्या निश्चय तथा वर्तमान में भी वह किसी की माँ है , किसी की पुत्री है, किसी की बहन है , किसी की भाभी है , किसी की ननद है आदिआदि। वह सदा पत्नी ही तो है नहीं। ऐसा मानने से उससे सुख लेने की इच्छा स्वतः मिटती है और केवल भरण-पोषण (सेवा) करने के लिये ही पत्नी है यह मान्यता दृढ़ होती है। इस प्रकार कर्मयोगी को संसार में पिता , पुत्र , पति , भाई आदि के रूपमें जो स्वाँग मिला है उसे वह ठीक-ठीक निभाता है। दूसरा अपने कर्तव्य का पालन करता है या नहीं उसकी ओर वह नहीं देखता। अपने में कर्तृत्वाभिमान होने से ही दूसरों के कर्तव्य पर दृष्टि जाती है और दूसरों के कर्तव्य पर दृष्टि जाते ही मनुष्य अपने कर्तव्य से गिर जाता है क्योंकि दूसरे का कर्तव्य देखना अपना कर्तव्य नहीं है। जिस प्रकार कर्मयोगी संसार के प्राणियों के साथ अपना सम्बन्ध निरन्तर नहीं मानता उसी प्रकार वर्ण , आश्रम , जाति , सम्प्रदाय , घटना , परिस्थिति आदि के साथ भी अपना सम्बन्ध निरन्तर नहीं मानता। जो वस्तु निरन्तर नहीं है उसका अभाव स्वतः है। अतः कर्मयोगी का कर्तृत्वाभिमान स्वतः मिट जाता है। जिसमें कर्तृत्व नहीं है उस परमात्मा के साथ प्राणिमात्र की स्वतःसिद्ध एकता है। साधक से भूल यह होती है कि वह इस वास्तविकता की तरफ ध्यान नहीं देता। जिस प्रकार झूला कितनी ही तेजी से आगे-पीछे क्यों न जाय हर बार वह समता (सम स्थिति) में आता ही है अर्थात् जहाँ से झूले की रस्सी बँधी है उसकी सीधमें (आगे-पीछे जाते समय) एक बार आता ही है उसी प्रकार प्रत्येक क्रिया के बाद अक्रिय अवस्था (समता) आती ही है। दूसरे शब्दों  में पहली क्रियाके अन्त तथा दूसरी क्रिया के आरम्भ के बीच और प्रत्येग संकल्प तथा विकल्प के बीच समता रहती ही है। दूसरी बात यदि वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो झूला चलते हुए (विषम दिखने पर) भी निरन्तर समता में ही रहता है अर्थात् झूला आगे-पीछे जाते समय भी निरन्तर (जहाँ से झूले की रस्सी बँधी है उसकी) सीध में ही रहता है। इसी प्रकार जीव भी प्रत्येक क्रिया में समता में ही स्थित रहता है। परमात्मा से उसकी एकता निरन्तर रहती है। क्रिया करते समय समता में स्थिति न दिखने पर भी वास्तव में समता रहती ही है , जिसका कोई अनुभव करना चाहे तो क्रिया समाप्त होते ही (उस समता का) अनुभव हो जाता है। यदि साधक इस विषय में निरन्तर सावधान रहे तो उसे निरन्तर रहने वाली समता या परमात्मा से अपनी एकता का अनुभव हो जाता है जहाँ कर्तृत्व नहीं है। माने हुए कर्तृत्वाभिमान को मिटाने के लिये प्रतीति और प्राप्त का भेद समझ लेना आवश्यक है। जो दिखता है पर मिलता नहीं उसे प्रतीति कहते हैं और जो मिलता है पर दिखता नहीं उसे प्राप्त कहते हैं। देखने-सुनने आदि में आने वाला प्रतिक्षण परिवर्तनशील संसार प्रतीति है और सर्वत्र नित्य परिपूर्ण परमात्मतत्त्व प्राप्त है। परमात्मतत्त्व ब्रह्मा से चींटीपर्यन्त सबको समानरूप से स्वतः प्राप्त है। इदंता से दिखने वाली प्रतीति का प्रतिक्षण अभाव हो रहा है। दृश्यमात्र प्रतिक्षण अदृश्य में जा रहा है। जिनसे प्रतीति होती है वे इन्द्रियाँ मन बुद्धि आदि भी प्रतीति ही हैं। नित्य अचल रहनेवाले स्वयं को प्रतीतिकी प्राप्ति नहीं होती। सदा सबमें रहने वाला परमात्मतत्त्व स्वयं को नित्यप्राप्त है। इसलिये प्रतीति अभावरूप और प्राप्त भावरूप है -नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः (गीता 2। 16)। यावन्मात्र पदार्थ और क्रिया प्रतीति है। क्रियामात्र अक्रियता में लीन होती है। प्रत्येक क्रिया के आदि और अन्त में सहज (स्वतःसिद्ध) अक्रिय तत्त्व विद्यमान रहता है। जो आदि और अन्त में होता है वही मध्य में भी होता है यह सिद्धान्त है। अतः क्रिया के समय भी अखण्ड और सहज अक्रिय तत्त्व ज्यों का त्यों विद्यमान रहता है। वह सहज अक्रिय तत्त्व (चेतन स्वरूप अथवा परमात्मतत्त्व) अक्रिय और सक्रिय दोनों अवस्थाओं को प्रकाशित करनेवाला है अर्थात् वह प्रवृत्ति और निवृत्ति (करने और न करने) दोनों से परे है। प्रतीति ( देश , काल , वस्तु , व्यक्ति , क्रिया आदि) से माने हुए सम्बन्ध अर्थात् आसक्ति के कारण ही नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्व का अनुभव नहीं होता। आसक्ति का नाश होते ही नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्व का अनुभव हो जाता है। अतः आसक्तिरहित होकर प्रतीति (अपने कहलाने वाले शरीरादि पदार्थों) को प्रतीति (संसारमात्र ) की सेवा में लगा देने से प्रतीति (शरीरादि पदार्थों ) का प्रवाह प्रतीति (संसार ) की तरफ ही हो जाता है और स्वतः प्राप्त परमात्मतत्त्व शेष रह जाता है। आसक्तिरहित होकर कर्म करने अर्थात् अपने लिये कोई कर्म न करने से क्या कोई परमात्मा को प्राप्त हो चुका है इसका उत्तर भगवान् आगे के श्लोक में देते हैं- स्वामी रामसुखदास जी  )

 

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