कर्मयोग ~ अध्याय तीन
17-24 ज्ञानवानऔर भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् ।
सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥3 .24॥
उत्सीदेयुः नष्ट हो जाएंगें; इमे – ये सब; लोका:-लोक; न–नहीं; कुर्याम्-मैं करूँगा; कर्म-नियत कर्त्तव्य; चेत्- यदि; अहम्-मैं; संकरस्य असभ्य जन समुदाय; च-तथा; कर्ता-उत्तरदायी; स्याम्-होऊँगा; उपहन्याम् – विनाश करने वाला; इमाः-इन सब; प्रजाः-मानव जाति का।
यदि मैं अपने निर्धारित कर्म नहीं करूँ तब ये सभी लोक और मनुष्य नष्ट – भ्रष्ट हो जाएँ और मैं संकरता ( असभ्य जन समुदाय ) का करने वाला होऊँ तथा संसार में उत्पन्न होने वाली अराजकता के लिए उत्तरदायी होता और इस प्रकार से मानव जाति या सम्पूर्ण प्रजा का विनाश करने वाला कहलाऊंगा।।3 .24।।
(“उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् ” भगवान ने 23वें श्लोक में “यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः” पदों से कर्मों में सावधानी न रखने से होने वाली हानि की बात कही और अब इस (24वें) श्लोक में उपर्युक्त पदों से कर्म न करने से होने वाली हानि की बात कहते हैं। यद्यपि ऐसा हो ही नहीं सकता कि मैं कर्तव्यकर्म न करूँ तथापि यदि ऐसा मान लिया जाय इस अर्थ में भगवान ने यहाँ “चेत्” पद का प्रयोग किया है। इन पदों का तात्पर्य है कि मनुष्य की कर्म न करने में भी आसक्ति नहीं होनी चाहिये “मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि” (गीता 2। 47)। इसीलिये भगवान् अपना उदाहरण देते हुए कहते हैं कि मेरे लिये कुछ भी प्राप्तव्य न होने पर भी मैं कर्म करता हूँ। यदि मैं (जिस वर्ण , आश्रम आदि में मैंने अवतार लिया है उसके अनुसार) अपने कर्तव्य का पालन न करूँ तो सम्पूर्ण मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायँ अर्थात् उनका पतन हो जाय। कारण कि अपने कर्तव्य का त्याग करने से मनुष्यों में तामस भाव आ जाता है जिससे उनकी अधोगति होती है – “अधो गच्छन्ति तामसाः” (गीता 14। 18)। भगवान् त्रिलोकी में आदर्श पुरुष हैं और सम्पूर्ण प्राणी उन्हीं के मार्ग का अनुसरण करते हैं। इसलिये यदि भगवान् कर्तव्य का पालन नहीं करेंगे तो त्रिलोकी में भी कोई अपने कर्तव्य का पालन नहीं करेगा। अपने कर्तव्य का पालन न करने से उनका अपने-आप पतन हो जायगा। “संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ” यदि मैं कर्तव्यकर्म न करूँ तो सब लोक नष्ट-भ्रष्ट हो जायँगे और उनके नष्ट होने का कारण मैं ही बनूँगा जबकि ऐसा सम्भव नहीं है। परस्परविरुद्ध दो धर्म (भाव ) एक में मिल जायँ तो वह संकर कहलाता है। पहले अध्याय के 40वें और 41वें श्लोक में अर्जुन ने कहा था कि यदि मैं युद्ध करूँगा तो कुल का नाश हो जायगा। कुल के नाश से सनातन कुलधर्म नष्ट हो जाता है , धर्म के नष्ट होने पर सम्पूर्ण कुल में पाप फैल जाता है , पाप के अधिक बढ़ने पर कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाती है और स्त्रियों के दूषित होने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है। इस प्रकार अर्जुन का भाव यह था कि युद्ध करने से वर्णसंकरता उत्पन्न होगी (टिप्पणी प0 157) परन्तु यहाँ भगवान् उससे विपरीत बात कहते हैं कि युद्धरूप कर्तव्यकर्म न करने से वर्णसंकरता उत्पन्न होगी। इस विषय में भगवान अपना उदाहरण देते हैं कि यदि मैं कर्तव्यकर्म न करूँ तो कर्म , धर्म , उपासना , वर्ण , आश्रम , जाति आदि सब में स्वतः संकरता आ जायगी। तात्पर्य यह है कि कर्तव्यकर्म न करने से ही संकरता उत्पन्न होती है। इसलिये यहाँ भगवान अर्जुन से मानो यह कहते हैं कि तू युद्धरूप कर्तव्यकर्म न करने से ही वर्णसंकर उत्पन्न करने वाला बनेगा न कि युद्ध करने से (जैसा कि तू मानता है )। अर्जुन के मूल प्रश्न (मुझे घोर कर्म में क्यों लगाते हैं ) का उत्तर भगवान 22वें , 23वें और 24वें तीन श्लोकों में अपने उदाहरण से देते हैं कि मैं तुम्हें ही कर्म में लगाता हूँ ऐसी बात नहीं है बल्कि मैं स्वयं भी कर्म में लगा रहता हूँ जबकि वास्तव में मेरे लिये त्रिलोकी में कुछ भी कर्तव्य एवं प्राप्तव्य नहीं है। भगवान अर्जुन को इस बात का संकेत करते हैं कि अभी इस अवतार में तुमने भी स्वीकार किया और मैंने भी स्वीकार किया कि तू रथी बने और मैं सारथि बनूँ तो देख क्षत्रिय होते हुए भी आज मैं तेरा सारथि बना हुआ हूँ और इस प्रकार स्वीकार किये हुए अपने कर्तव्य का सावधानी और तत्परतापूर्वक पालन कर रहा हूँ। मेरे इस कर्तव्यपालन का भी त्रिलोकी पर प्रभाव पड़ेगा क्योंकि मैं त्रिलोकी में आदर्श पुरुष हूँ। समस्त प्राणी मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं। इस प्रकार तुम्हें भी अपने कर्तव्यकर्म की उपेक्षा न करके मेरी तरह उसका सावधानी एवं तत्परतापूर्वक पालन करना चाहिये। पीछे के तीन श्लोकों में भगवान ने जैसे अपने लिये कर्म करने में सावधानी रखने का वर्णन किया ऐसे ही आगे के दो श्लोकों में ज्ञानी महापुरुष के लिये कर्म करने में सावधानी रखने की प्रेरणा करते हैं- स्वामी रामसुखदास जी )