Chapter 3 Bhagavad Gita Karm Yog

 

 

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कर्मयोग ~ अध्याय तीन

25-35 अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा

 

 

The Bhagavad Gita Chapter 3

प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्।।3.29।।

 

प्रकृतेः-भौतिक शक्ति; गुण–प्रकृति के गुण; सम्मूढाः-भ्रमित; सज्जन्ते-आसक्त हो जाते हैं; गुण-कर्मसु-कर्म फलों में; तान्–उन; अकृत्स्नविद्:-अज्ञानी पुरुष; मन्दान्–अल्पज्ञानी; कृत्स्नवित्- ज्ञानी पुरुष; न-नहीं; विचालयेत्–विचलित करना चाहिए।

 

जो अज्ञानी मनुष्य प्रकृति के गुणों के प्रभाव से अत्यंत मोहित होकर कर्मों और उनके फलों में आसक्त रहते हैं अर्थात फल प्राप्ति की कामना के साथ ही अपने कर्म करते हैं , लेकिन बुद्धिमान पुरुष जो इस परम सत्य को जानते हैं, उन्हें ऐसे अज्ञानी लोगों को जिनका ज्ञान अल्प होता है विचलित नहीं करना चाहिए ॥3 .29॥

 

( “प्रकृतेर्गुणसंमूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु ” सत्त्व , रज और तम ये तीनों प्रकृतिजन्य गुण मनुष्य को बाँधने वाले हैं। सत्त्वगुण सुख और ज्ञान की आसक्ति से रजोगुण कर्म की आसक्ति से और तमोगुण , प्रमाद , आलस्य तथा निद्रा से मनुष्य को बाँधता है (गीता 14। 6 8)। उपर्युक्त पदों में उन अज्ञानियों का वर्णन है जो प्रकृतिजन्य गुणों से अत्यन्त मोहित अर्थात् बँधे हुए हैं परन्तु जिनका शास्त्रों में शास्त्रविहित शुभकर्मों में तथा उन कर्मों के फलों में श्रद्धा-विश्वास है। इसी अध्याय के 25वें – 26वें श्लोकों में ऐसे अज्ञानी पुरुषों का ‘सक्ताः अविद्वांसः ‘ और ‘कर्मसङ्गिनाम् अज्ञानाम्’ नाम से वर्णन हुआ है। लौकिक और पारलौकिक भोगों की कामना के कारण ये पुरुष पदार्थों और कर्मोंमें आसक्त रहते हैं। इस कराण इनसे ऊँचे उठने की बात समझ नहीं सकते। इसीलिये भगवान ने इन्हें अज्ञानी कहा है। ‘तानकृत्स्नविदो मन्दान् ‘ अज्ञानी मनुष्य शुभकर्म तो करते हैं पर करते हैं , नित्य-निरन्तर न रहने वाले नाशवान पदार्थों की प्राप्ति के लिये। धनादि प्राप्त पदार्थों में वे ममता रखते हैं और अप्राप्त पदार्थों की कामना करते हैं। इस प्रकार ममता और कामना से बँधे रहने के कारण वे गुणों (पदार्थों) और कर्मों के तत्त्व को पूर्ण रूप से नहीं जान सकते। अज्ञानी मनुष्य शास्त्रविहित कर्म और उनकी विधिको तो ठीक तरहसे जानते हैं पर गुणों और कर्मों के तत्त्व को ठीक तरहसे न जानने के कारण उन्हें अकृत्सनविदः (पूर्णतया न जाननेवाले) कहा गया है और सांसारिक भोग तथा संग्रह में रुचि होने के कारण उन्हें मन्दान् (मन्दबुद्धि) कहा गया है। ‘कृत्स्नविन्न विचालयेत् ‘ गुण और कर्मविभाग को पूर्णतया जानने वाले तथा कामना-ममता से रहित ज्ञानी पुरुष को चाहिये कि वह पूर्ववर्णित (सकाम भावपूर्वक शुभकर्मों में लगे हुए) अज्ञानी पुरुषों को शुभकर्मों से विचलित न करें जिससे वे मन्दबुद्धि पुरुष अपनी वर्तमान स्थिति से नीचे न गिर जायँ। इसी अध्यायके 25वें- 26वें श्लोकों में ऐसे ज्ञानी पुरुषों का ‘असक्तः विद्वान् और युक्तः विद्वान् ‘ नाम से वर्णन हुआ है। भगवान ने तत्त्वज्ञ महापुरुष को 25वें श्लोकमें कुर्यात् पदसे स्वयं कर्म करने की तथा 26वें श्लोक में ‘जोषयेत्’ पद से अज्ञानी पुरुषों से भी वैसे ही कर्म करवाने की आज्ञा दी थी। परन्तु यहाँ भगवान ने ‘न विचालयेत् ‘ पदों से वैसी आज्ञा न देकर मानो उसमें कुछ ढील दी है कि ज्ञानी पुरुष अधिक नहीं तो कम से कम अपने संकेत , वचन और क्रिया से अज्ञानी पुरुषों को विचलित न करे। कारण कि जीवन्मुक्त महापुरुष पर भगवान और शास्त्र अपना शासन नहीं रखते। उनके कहलाने वाले शरीर से स्वतःस्वाभाविक लोकसंग्रहार्थ क्रियाएँ हुआ करती हैं (टिप्पणी प0 166)। तत्त्वज्ञ महापुरुष कर्मयोगी हो अथवा ज्ञानयोगी सम्पूर्ण कर्म करते हुए भी उसका कर्मों और पदार्थों के साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध स्वतः नहीं रहता जो वस्तुतः था नहीं। अज्ञानी मनुष्य स्वर्गप्राप्ति के लिये शुभकर्म किया करते हैं। इसलिये भगवान ने ऐसे मनुष्यों को विचलित न करने की आज्ञा दी है अर्थात् वे महापुरुष अपने संकेत वचन और क्रिया से ऐसी कोई बात प्रकट न करें जिससे उन सकाम पुरुषों की शास्त्रविहित शुभकर्मों में अश्रद्धा , अविश्वास या अरुचि पैदा हो जाय और वे उन कर्मों का त्याग कर दें क्योंकि ऐसा करने से उनका पतन हो सकता है। इसलिये ऐसे पुरुषों को सकाम भाव से विचलित करना है शास्त्रीय कर्मों से नहीं। जन्ममरणरूप बन्धन से छुटकारा दिलाने के लिये उन्हें सकामभाव से विचलित करना उचित भी है और आवश्यक भी। जिससे मनुष्य कर्मों में फँस जाता है उस कर्म और कर्मफल की आसक्ति से छूटने के लिये क्या करना चाहिये इसको भगवान आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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