Chapter 3 Bhagavad Gita Karm Yog

 

 

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कर्मयोग ~ अध्याय तीन

25-35 अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा

 

 

The Bhagavad Gita Chapter 3

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌ ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥3 .35॥

 

श्रेयान्-अति श्रेष्ठ; स्वधर्म:-अपने निजी कर्त्तव्य; विगुणः-दोषयुक्त; परधर्मात्-अन्यों के नियत कार्यों की अपेक्षा; स्व अनुण्ठितात्–निपुणता के साथ; स्वधर्मे-अपने निश्चित कर्त्तव्यों से; निधनम्-मृत्युः श्रेयः-उत्तम; परधर्म:-अन्यों के लिए नियत कर्त्तव्य; भयआवहः-भयावह।

 

अपने नियत कार्यों को दोष युक्त सम्पन्न करना अन्य के निश्चित कार्यों को समुचित ढंग से करने से कहीं अधिक श्रेष्ठ होता है। वास्तव में अपने कर्तव्य का पालन करते हुए मरना दूसरों के जोखिम से युक्त भयावह मार्ग का अनुसरण करने से श्रेयस्कर होता है॥3.35॥

 

(‘श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात् ‘ अन्य वर्ण ,आश्रम आदि का धर्म (कर्तव्य) बाहर से देखने में गुण सम्पन्न हो उसके पालन में भी सुगमता हो पालन करने में मन भी लगता हो धन-वैभव , सुख-सुविधा , मान-बड़ाई आदि भी मिलती हो और जीवन भर सुख-आराम से भी रह सकते हों तो भी उस परधर्म का पालन अपने लिये विहित न होने से परिणाम में भय (दुःख) को देने वाला है। इसके विपरीत अपने वर्ण , आश्रम आदि का धर्म बाहर से देखने में गुणों की कमी वाला हो , उसके पालन में भी कठिनाई हो पालन करने में मन भी न लगता हो धन-वैभव , सुख-सुविधा , मान-बड़ाई आदि भी न मिलती हो और उसका पालन करनेमें जीवन भर कष्ट भी सहना पड़ता हो तो भी उस स्वधर्म का निष्कामभाव से पालन करना परिणाम में कल्याण करने वाला है। इसलिये मनुष्य को किसी भी स्थिति में अपने धर्म का त्याग नहीं करना चाहिये बल्कि निष्काम , निर्मम और अनासक्त होकर स्वधर्म का ही पालन करना चाहिये। मनुष्य के लिये स्वधर्म का पालन स्वाभाविक है सहज है। मनुष्य का जन्म कर्मों के अनुसार होता है और जन्म के अनुसार भगवान ने कर्म नियत किये हैं (गीता 18। 41)। अतः अपने-अपने नियत कर्मों का पालन करने से मनुष्य कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है अर्थात् उसका कल्याण हो जाता है (गीता 18। 45)। अतः दोषयुक्त दिखने पर भी नियत कर्म अर्थात् स्वधर्म का त्याग नहीं करना चाहिये (गीता 18। 48)।अर्जुन युद्ध करने की अपेक्षा भिक्षा का अन्न खाकर जीवननिर्वाह करने को श्रेष्ठ समझते हैं (गीता 2। 5) परंतु यहाँ भगवान् अर्जुन को मानो यह समझाते हैं कि भिक्षा के अन्न से जीवननिर्वाह करना भिक्षुक के लिये स्वधर्म होते हुए भी तेरे लिये परधर्म है क्योंकि तू गृहस्थ क्षत्रिय है भिक्षुक नहीं। पहले अध्याय में भी जब अर्जुन ने कहा कि युद्ध करने से पाप ही लगेगा – पापमेवाश्रयेत् (1। 36) तब भी भगवान ने कहा कि धर्ममय युद्ध न करने से तू स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा (2। 33)। फिर भगवान ने बताया कि जय-पराजय , लाभ-हानि और सुख-दुःख को समान समझ कर युद्ध करने से अर्थात् रागद्वेष से रहित होकर अपने कर्तव्य (स्वधर्म) का पालन करने से पाप नहीं लगता। (2। 38) आगे 18वें अध्याय में भी भगवान ने यही बात कही है कि स्वभावनियत स्वधर्मरूप कर्तव्य को करता हुआ मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता। (18। 47) तात्पर्य यह है कि स्वधर्म के पालन में राग-द्वेष रहने से ही पाप लगता है अन्यथा नहीं। राग-द्वेष से रहित होकर स्वधर्म का भली-भाँति आचरण करने से समता (योग ) का अनुभव होता है और समता का अनुभव होने पर दुःखों का नाश हो जाता है (गीता 6। 23)। इसलिये भगवान् बार-बार अर्जुन को राग-द्वेष से रहित होकर युद्धरूप स्वधर्म का पालन करने पर जोर देते हैं। भगवान् अर्जुन को मानो यह समझाते हैं कि क्षत्रियकुल में जन्म होने के कारण क्षात्रधर्म के नाते युद्ध करना तुम्हारा स्वधर्म (कर्तव्य) है अतः युद्ध में जय-पराजय , लाभ-हानि और सुख-दुःख को समान देखना है और युद्धरूप क्रिया का सम्बन्ध अपने साथ नहीं है ऐसा समझकर केवल कर्मों की आसक्ति मिटाने के लिये कर्म करना है। शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , पदार्थ आदि अपने कर्तव्य का पालन करने के लिये ही हैं। वर्ण आश्रम आदि के अनुसार अपने-अपने कर्तव्य का निःस्वार्थभाव से पालन करना ही स्वधर्म है। आस्तिकजन जिसे धर्म कहते हैं उसी का नाम कर्तव्य है। स्वधर्म का पालन करना अथवा अपने कर्तव्य का पालन करना एक ही बात है।कर्तव्य उसे कहते हैं जिसको सुगमतापूर्वक कर सकते हैं जो अवश्य करने योग्य है और जिसको करने पर प्राप्तव्य की प्राप्ति अवश्य होती है। धर्म का पालन करना सुगम होता है क्योंकि वह कर्तव्य होता है। यह नियम है कि केवल अपने धर्मका ठीकठीक पालन करनेसे मनुष्य को वैराग्य हो जाता है धर्म तें बिरति ৷৷. (मानस 3। 16। 1)। केवल कर्तव्यमात्र समझकर धर्म का पालन करने से कर्मों का प्रवाह प्रकृति में चला जाता है और इस तरह अपने साथ कर्मों का सम्बन्ध नहीं रहता। वर्ण , आश्रम आदि के अनुसार सभी मनुष्यों का अपना-अपना कर्तव्य (स्वधर्म) कल्याणप्रद है परन्तु दूसरे वर्ण , आश्रम आदि का कर्तव्य देखने से अपना कर्तव्य अपेक्षाकृत कम गुणों वाला दिखता है जैसे ब्राह्मण के कर्तव्य (शम , दम , तप , क्षमा आदि ) की अपेक्षा क्षत्रिय के कर्तव्य (युद्ध करना आदि) में अहिंसादि गुणों की कमी दिखती है। इसलिये यहाँ ‘विगुणः’ पद देने का भाव यह है कि दूसरों के कर्तव्य से अपने कर्तव्य में गुणों की कमी दिखने पर भी अपना कर्तव्य ही कल्याण करने वाला है। अतः किसी भी अवस्था में अपने कर्तव्य का त्याग नहीं करना चाहिये। वर्ण – आश्रम आदि के अनुसार बाहर से तो कर्म अलग-अलग (घोर या सौम्य ) प्रतीत होते हैं पर परमात्मप्राप्तिरूप उद्देश्य एक ही होता है। परमात्मप्राप्ति का उद्देश्य न रहने से तथा अन्तःकरण में प्राकृत पदार्थों का महत्त्व रहने से ही कर्म घोर या सौम्य प्रतीत होते हैं। ‘स्वधर्मे निधनं श्रेयः’- स्वधर्मपालन में यदि सदा सुख-आराम , धन-सम्पत्ति , मान-बड़ाई , आदर-सत्कार आदि ही मिलते तो वर्तमान में धर्मात्माओं की टोलियाँ देखने में आतीं। परन्तु स्वधर्म का पालन सुख अथवा दुःख को देखकर नहीं किया जाता बल्कि भगवान् अथवा शास्त्र की आज्ञा को देखकर निष्कामभाव से किया जाता है। इसलिये स्वधर्म अर्थात् अपने कर्तव्य का पालन करते हुए यदि कोई कष्ट आ जाय तो वह कष्ट भी उन्नति करने वाला होता है। वास्तव में वह कष्ट नहीं अपितु तप होता है। उस कष्ट से तप की अपेक्षा भी बहुत जल्दी उन्नति होती है। कारण कि तप अपने लिये किया जाता है और कर्तव्य दूसरों के लिये। जानकर किये गये तप से उतना लाभ नहीं होता जितना लाभ स्वतः आये हुए कष्ट रूप तप से होता है। जिन्होंने स्वधर्मपालन में कष्ट सहन किया और जो स्वधर्म का पालन करते हुए मर गये वे धर्मात्मा पुरुष अमर हो गये। लौकिक दृष्टि से भी जो कष्ट आने पर भी अपने धर्म (कर्तव्य ) पर डटा रहता है उसकी बहुत प्रशंसा और महिमा होती है। जैसे देश को स्वतन्त्र बनाने के लिये जिन पुरुषों ने कष्ट सहे , बार-बार जेल गये और फाँसी पर लटकाये गये उनकी आज भी बहुत प्रशंसा और महिमा होती है। इसके विपरीत बुरे कर्म करके जेल जाने वालों की सब जगह निन्दा होती है। तात्पर्य यह निकला कि निष्कामभावपूर्वक अपने धर्म का पालन करते हुए कष्ट आ जाय अथवा मृत्यु तक भी हो जाय तो भी उससे लोक में प्रशंसा और परलोक में कल्याण ही होता है। स्वधर्म का पालन करने वाले मनुष्य की दृष्टि धर्म पर रहती है। धर्म पर दृष्टि रहने से उसका धर्म के साथ सम्बन्ध रहता है। अतः धर्मपालन करते हुए यदि मृत्यु भी हो जाय तो उसका उद्धार हो जाता है। शङ्का – स्वधर्म का पालन करते हुए मरने से कल्याण ही होता है इसे कैसे मानें ? समाधान – गीता साक्षात् भगवान की वाणी है अतः इसमें शङ्का की सम्भावना ही नहीं है। दूसरी बात कि यह चर्मचक्षुओं का प्रत्यक्ष विषय नहीं है बल्कि श्रद्धा-विश्वास का विषय है। फिर भी इस विषय में कुछ बातें बतायी जाती है । ( 1 ) जिस विषय का हमें पता नहीं है उसका पता शास्त्र से ही लगता है । शास्त्र में आया है कि जो धर्म की रक्षा करता है उसकी रक्षा (कल्याण ) धर्म करता है ‘धर्मो रक्षति रक्षितः’ (मनुस्मृति 8। 15)। अतः जो धर्म का पालन करता है उसके कल्याण का भार धर्म पर और धर्म के उपदेष्टा भगवान् वेदों , शास्त्रों , ऋषियों ,मुनियों आदि पर होता है तथा उन्हीं की शक्ति से उसका कल्याण होता है। जैसे हमारे शास्त्रों में आया है कि पातिव्रत धर्म का पालन करने से स्त्री का कल्याण हो जाता है तो वहाँ पातिव्रतधर्म की आज्ञा देने वाले भगवान् वेद शास्त्र आदि की शक्ति से ही कल्याण होता है पति की शक्ति से नहीं। ऐसे ही धर्म का पालन करने के लिये भगवान् वेद शास्त्रों , ऋषि-मुनियों और संत-महात्माओं की आज्ञा है इसलिये धर्मपालन करते हुए मरने पर उनकी शक्ति से कल्याण हो जाता है इसमें किञ्चिन्मात्र भी संदेह नहीं है। (2) पुराणों और इतिहासों से भी सिद्ध होता है कि अपने धर्म का पालन करने वाले का कल्याण होता है। जैसे राजा हरिश्चन्द्र अनेक कष्ट , निन्दा , अपमान आदि के आने पर भी अपने सत्यधर्म से विचलित नहीं हुए अतः इसके प्रभाव से वे समस्त प्रजा को साथ लेकर परमधाम गये (टिप्पणी प0 184.2) और आज भी उनकी बहुत प्रशंसा और महिमा है। (3 ) वर्तमान समय में पुनर्जन्म-सम्बन्धी अनेक सत्य घटनाएँ देखने-सुनने और पढ़ने में आती है जिनसे मृत्यु के बाद होने वाली सद्गति और दुर्गति का पता लगता है (टिप्पणी प0 184.3)। (4) निःस्वार्थभाव से अपने कर्तव्य का ठीक-ठीक पालन करने पर आस्तिक की तो बात ही क्या , परलोक को न मानने वाले नास्तिक के भी चित्त में सात्त्विक प्रसन्नता आ जाती है। यह प्रसन्नता कल्याण का द्योतक है क्योंकि कल्याण का वास्तविक स्वरूप परमशान्ति है। अतः अपने अनुभव से भी सिद्ध होता है कि अकर्तव्य का सर्वथा त्याग करके कर्तव्य का पालन करने से कल्याण होता है। मार्मिक बात- स्वयं परमात्मा का अंश होने से वास्तव में स्वधर्म है अपना कल्याण करना , अपने को भगवान का मानना और भगवान के सिवाय किसी को भी अपना न मानना , अपने को जिज्ञासु मानना , अपने को सेवक मानना। कारण कि ये सभी सही धर्म हैं , विशेष रूप से स्वयं के धर्म हैं , मन-बुद्धि के धर्म नहीं हैं। बाकी वर्ण , आश्रम , शरीर आदि को लेकर जितने भी धर्म हैं वे अपने कर्तव्यपालन के लिये स्वधर्म होते हुए भी परधर्म ही हैं। कारण कि वे सभी धर्म माने हुए हैं और स्वयं के नहीं हैं। उन सभी धर्मों में दूसरों के सहारे की आवश्यकता होती है अर्थात् उनमें परतन्त्रता रहती है परन्तु जो अपना असली धर्म है उसमें किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं होती अर्थात् उसमें स्वतन्त्रता रहती है। इसलिये प्रेमी होता है तो स्वयं होता है , जिज्ञासु होता है तो स्वयं होता है और सेवक होता है तो स्वयं होता है। अतः प्रेमी प्रेम होकर प्रेमास्पद के साथ एक हो जाता है , जिज्ञासु जिज्ञासा होकर ज्ञात-व्यतत्त्व के साथ एक हो जाता है और सेवक सेवा होकर सेव्य के साथ एक हो जाता है। ऐसे ही साधकमात्र साधना से एक होकर साध्यस्वरूप हो जाता है। परमात्मप्राप्ति चाहने वाले साधक को धन , मान , बड़ाई ,आदर ,आराम आदि पाने की इच्छा नहीं होती। इसलिये धन-मान आदिके न मिलने पर उसे कोई चिन्ता नहीं होती और यदि प्रारब्धवश ये मिल जायँ तो उसे कोई प्रसन्नता नहीं होती। कारण कि उसका ध्येय केवल परमात्मा को प्राप्त करना ही होता है , धन – मान आदि को प्राप्त करना नहीं। इसलिये कर्तव्यरूप से प्राप्त लौकिक कार्य भी उसके द्वारा सुचारु रूप से और पवित्रतापूर्वक होते हैं। परमात्मप्राप्ति का उद्देश्य होने से उसके सभी कर्म परमात्मा के लिये ही होते हैं। जैसे धनप्राप्ति का ध्येय होने पर व्यापारी आराम का त्याग करता है और कष्ट सहता है और जैसे डाक्टर द्वारा फोड़े पर चीरा लगाते समय इसका परिणाम अच्छा होगा इस तरफ दृष्टि रहने से या ऐसा सोचते हुए रोगी का अन्तःकरण प्रसन्न रहता है ऐसे ही परमात्मप्राप्ति का लक्ष्य रहने से संसार में पराजय , हानि , कष्ट आदि प्राप्त होने पर भी साधक के अन्तःकरण में स्वाभाविक प्रसन्नता रहती है। अनुकूल-प्रतिकूल आदि मात्र परिस्थितियाँ उसके लिये साधनसामग्री होती हैं। जब साधक अपना कल्याण करने का ही दृढ़ निश्चय करके स्वधर्म (अपने स्वाभाविक कर्म) के पालन में तत्परतापूर्वक लग जाता है तब कोई कष्ट , दुःख , कठिनाई आदि आने पर भी वह स्वधर्म से विचलित नहीं होता। इतना ही नहीं वह कष्ट , दुःख आदि उसके लिये तपस्या के रूप में तथा प्रसन्नता को देने वाला होता है। शरीर को मैं और मेरा मानने से ही संसार में राग-द्वेष होते हैं। राग-द्वेष के रहने पर मनुष्य को स्वधर्म-परधर्म का ज्ञान नहीं होता। अगर शरीर मैं (स्वरूप) होता तो मैं के रहते हुए शरीर भी रहता और शरीर के न रहने परमैं भी न रहता। अगर शरीर मेरा होता तो इसे पाने के बाद और कुछ पाने की इच्छा न रहती। अगर इच्छा रहती है तो सिद्ध हुआ कि वास्तव में मेरी (अपनी) वस्तु अभी नहीं मिली और मिली हुई वस्तु (शरीरादि) मेरी नहीं है। शरीर को साथ लाये नहीं साथ ले जा सकते नहीं उसमें इच्छानुसार परिवर्तन कर सकते नहीं फिर वह मेरा कैसे इस प्रकार शरीर मैं नहीं और मेरा नहीं इसका ज्ञान (विवेक) सभी साधकों में रहता है परन्तु इस ज्ञान को महत्त्व न देने से उनके राग-द्वेष नहीं मिटते। अगर शरीर में कभी मैंपन और मेरापन दिख भी जाय तो भी साधक को उसे महत्त्व न देकर अपने विवेक को ही महत्त्व देना चाहिये अर्थात् शरीर मैं नहीं और मेरा नहीं इसी बात पर दृढ़ रहना चाहिये। अपने विवेक को महत्त्व देने से वास्तविक तत्त्व का बोध हो जाता है। बोध होने पर राग-द्वेष नहीं रहते। राग-द्वेष के न रहने पर अन्तःकरण में स्वधर्म-परधर्म का ज्ञान स्वतः प्रकट होता है और उसके अनुसार स्वतः चेष्टा होती है। “परधर्मो भयावहः ” यद्यपि परधर्म का पालन वर्तमान में सुगम दिखता है तथापि परिणाम में वह सिद्धान्त से भयावह है। यदि मनुष्य स्वार्थ भाव का त्याग करके परहित के लिये स्वधर्म का पालन करे तो उसके लिये कहीं कोई भय नहीं है। शङ्का – 18वें अध्याय के 42वें , 43वें और 44वें श्लोक में क्रमशः ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र के स्वाभाविक कर्मों का वर्णन करके भगवान् ने 47वें श्लोक के पूर्वार्ध में भी यही बात (श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्) कही है। अतः जब यहाँ ( प्रस्तुत श्लोक में ) दूसरे के स्वाभाविक कर्म को भयावह कहा गया है तब 18वें अध्याय के 42वें श्लोक में कहे ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म भी दूसरों (क्षत्रियादि ) के लिये भयावह होने चाहिये जब कि शास्त्रों में सभी मनुष्यों को उनका पालन करने की आज्ञा दी गयी है। समाधान -मन का निग्रह , इन्द्रियों का दमन आदि तो सामान्य धर्म है (गीता 13। 711 16। 13) जिनका पालन सभी को करना चाहिये क्योंकि ये सभी के स्वधर्म हैं। ये सामान्य धर्म ब्राह्मण के लिये स्वाभाविक कर्म इसलिये हैं कि इनका पालन करने में उन्हें परिश्रम नहीं होता परन्तु दूसरे वर्णों को इनका पालन करने में थोड़ा परिश्रम हो सकता है। स्वाभाविक कर्म और सामान्य धर्म दोनों ही स्वधर्म के अन्तर्गत आते हैं। सामान्य धर्म के सिवाय अपने स्वाभाविक कर्म में पाप दिखते हुए भी वास्तव में पाप नहीं होता जैसे केवल अपना कर्तव्य समझकर (स्वार्थ , द्वेष आदि के बिना) शूरवीरतापूर्वक युद्ध करना क्षत्रिय का स्वाभाविक कर्म होने से इसमें पाप दिखते हुए भी वास्तव में पाप नहीं होता – ‘स्वाभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ‘ (गीता 18। 47)। सामान्य धर्म के सिवाय दूसरे का स्वाभाविक कर्म (परधर्म ) भयावह है क्योंकि उसका आचरण शास्त्रनिषिद्ध और दूसरे की जीविका को छीनने वाला है। दूसरे का धर्म भयावह इसलिये है कि उसका पालन करने से पाप लगता है और वह स्थानविशेष तथा योनिविशेष नरकरूप भय को देने वाला होता है। इसलिये भगवान् अर्जुन से मानो यह कहते हैं कि भिक्षा के अन्न से जीवननिर्वाह करना दूसरों की जीविका का हरण करने वाला तथा क्षत्रिय के लिये निषिद्ध होने के कारण तेरे लिये श्रेयस्कर नहीं है बल्कि तेरे लिये युद्धरूप से स्वतः प्राप्त स्वाभाविक कर्म का पालन ही श्रेयस्कर है। स्वधर्म और परधर्मसम्बन्धी मार्मिक बात- परमात्मा और उनका अंश (जीवात्मा) स्वयं है तथा प्रकृति और उसका कार्य (शरीर और संसार)अन्य है। स्वयं का धर्म स्वधर्म और अन्य का धर्म परधर्म कहलाता है। अतः सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो निर्विकारता , निर्दोषता , अविनाशिता , नित्यता , निष्कामता , निर्ममता आदि जितने स्वयं के धर्म हैं वे सब स्वधर्म हैं। उत्पन्न होना , उत्पन्न होकर रहना , बदलना , बढ़ना , क्षीण होना तथा नष्ट होना (टिप्पणी प0 186) एवं भोग और संग्रह की इच्छा मान-बड़ाई की इच्छा आदि जितने शरीर के , संसार के धर्म हैं वे सब परधर्म हैं – ‘संसारधर्मैरविमुह्यमानः’ (श्रीमद्भा0 11। 2। 49) स्वयं में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता इसलिये उसका नाश नहीं होता परन्तु शरीर में निरन्तर परिवर्तन होता है इसलिये उसका नाश होता है। इस दृष्टि से स्वधर्म अविनाशी और परधर्म नाशवान् है। त्याग (कर्मयोग) , बोध (ज्ञानयोग) और प्रेम (भक्तियोग) ये तीनों ही स्वतःसिद्ध होने से स्वधर्म हैं। स्वधर्म में अभ्यास की जरूरत नहीं है क्योंकि अभ्यास शरीर के सम्बन्ध से होता है और शरीर के सम्बन्ध से होने वाला सब परधर्म है।योगी होना स्वधर्म है और भोगी होना परधर्म है। निर्लिप्त रहना स्वधर्म है और लिप्त होना परधर्म है। सेवा करना स्वधर्म है और कुछ भी चाहना परधर्म है। प्रेमी होना स्वधर्म है और रागी होना परधर्म है। निष्काम , निर्मम और अनासक्त होना स्वधर्म है एवं कामना , ममता और आसक्ति करना परधर्म है। तात्पर्य है कि प्रकृति के सम्बन्ध के बिना (स्वयं में ) होने वाला सब कुछ स्वधर्म है और प्रकृति के सम्बन्ध से होने वाला सब कुछ परधर्म है। स्वधर्म , चिन्मयधर्म और परधर्म जडधर्म है। परमात्मा का अंश (शरीरी )स्व है और प्रकृति का अंश (शरीर) पर है। स्व के दो अर्थ होते हैं एक तोस्वयं और दूसरा स्वकीय अर्थात् परमात्मा। इस दृष्टि से अपने स्वरूपबोध की इच्छा तथा स्वकीय परमात्मा की इच्छा दोनों ही स्वधर्म हैं। पुरुष (चेतन ) का धर्म है स्वतःसिद्ध स्वभाविक स्थिति और प्रकृति (जड) का धर्म है स्वतःसिद्ध स्वभाविक परिवर्तनशीलता। पुरुष का धर्म स्वधर्म और प्रकृति का धर्मप रधर्म है। मनुष्य में दो प्रकार की इच्छाएँ रहती हैं सांसारिक अर्थात् भोग एवं संग्रह की इच्छा और पारमार्थिक अर्थात् अपने कल्याण की इच्छा। इसमें भोग और संग्रह की इच्छा परधर्म अर्थात् शरीर का धर्म है क्योंकि असत् शरीर के साथ सम्बन्ध जोड़ने से ही भोग और संग्रह की इच्छा होती है। अपने कल्याण की इच्छा स्वधर्म है क्योंकि परमात्मा का ही अंश होने से स्वयं की इच्छा परमात्मा की ही है संसार की नहीं। स्वधर्म का पालन करने में मनुष्य स्वतन्त्र है क्योंकि अपना कल्याण करने में शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि की आवश्यकता नहीं है बल्कि इनसे विमुख होने की आवश्यकता है परंतु परधर्म का पालन करने में मनुष्य परतन्त्र है क्योंकि इसमें शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , देश , काल , वस्तु , व्यक्ति आदि की आवश्यकता है। शरीरादि की सहायता के बिना परधर्म का पालन हो ही नहीं सकता। स्वयं परमात्मा का अंश है और शरीर संसार का अंश है। जब मनुष्य परमात्मा को अपना मान लेता है तब यह उसके लिये स्वधर्म हो जाता है और जब शरीर संसार को अपना मान लेता है तब यह उसके लिये परधर्म हो जाता है जो कि शरीरधर्म है। जब मनुष्य शरीर से अपना सम्बन्ध न मानकर परमात्मप्राप्ति के लिये साधन करता है तब वह साधन उसका स्वधर्म होता है। नित्यप्राप्त परमात्मा का अथवा अपने स्वरूप का अनुभव कराने वाले सब साधन स्वधर्म हैं और संसार की ओर ले जाने वाले सब कर्म परधर्म हैं। इस दृष्टि से कर्मयोग , ज्ञानयोग और भक्तियोग तीनों ही योगमार्ग मनुष्यमात्र के स्वधर्म हैं। इसके विपरीत शरीर से अपना सम्बन्ध मानकर भोग और संग्रह में लगना मनुष्यमात्र का परधर्म है।स्थूल सूक्ष्म और कारण तीनों शरीरों से किये जाने वाले तीर्थ , व्रत , दान , तप , चिन्तन , ध्यान , समाधि आदि समस्त शुभकर्म सकामभावसे अर्थात् अपने लिये करने पर परधर्म हो जाते हैं और निष्कामभाव से अर्थात् दूसरों के लिये करने पर स्वधर्म हो जाते हैं। कारण कि स्वरूप निष्काम है और सकामभाव प्रकृति के सम्बन्ध से आता है। इसलिये कामना होने से परधर्म होता है। स्वधर्म मुक्त करने वाला और परधर्म बाँधने वाला होता है। मनुष्य का खास काम है परधर्म से विमुख होना और स्वधर्म के सम्मुख होना। ऐसा केवल मनुष्य ही कर सकता है। स्वधर्म की सिद्धि के लिये ही मनुष्य शरीर मिला है। परधर्म तो अन्य योनियों में तथा भोगप्रधान स्वर्गादि लोकों में भी है। स्वधर्म में मनुष्यमात्र सबल पात्र और स्वाधीन है तथा परधर्म में मनुष्यमात्र निर्बल अपात्र और पराधीन है। प्रकृतिजन्य वस्तु की कामना से अभाव का दुःख होता है और वस्तु के मिलने पर उस वस्तु की पराधीनता होती है जो कि परधर्म है परन्तु प्रकृतिजन्य वस्तुओं की कामनाओं का नाश होने पर अभाव है और पराधीनता सदा के लिये मिट जाती है जो कि स्वधर्म है। इस स्वधर्म में स्थित रहते हुए कितना ही कष्ट आ जाय यहाँ तक कि शरीर भी छूट जाय तो भी वह कल्याण करने वाला है परन्तु परधर्म के सम्बन्ध में सुख-सुविधा होने पर भी वह भयावह अर्थात् बारम्बार जन्म-मरण में डालने वाला है। संसार में जितने भी दुःख , शोक , चिन्ता आदि हैं वे सब परधर्म का आश्रय लेने से ही हैं। परधर्म का आश्रय छोड़कर , स्वधर्म का आश्रय लेने से सदैव , सर्वथा , सर्वदा रहने वाले आनन्द की प्राप्ति हो जाती है जो कि स्वतःसिद्ध है। स्वधर्म कल्याणकारक और परधर्म भयावह है ऐसा जानते हए भी मनुष्य स्वधर्म में प्रवृत्त क्यों नहीं होता ? इस पर अर्जुन प्रश्न करते हैं- स्वामी रामसुखदास जी )

 

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