कर्मयोग ~ अध्याय तीन
36-43 पापके कारणभूत कामरूपी शत्रु को नष्ट करने का उपदेश
श्रीभगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ॥3 . 37।।
श्री-भगवान् उवाच-श्रीभगवान् ने कहा; कामः-काम-वासना; एषः-यह; क्रोधः-क्रोध; एषः-यह; रजो-गुण-रजस गुण; समुद्भवः-उत्पन्न; महा-अशनः-सर्वभक्षी; महापाप्मा-महान पापी; विद्धि-समझो; एनम् -इसे; इह-भौतिक संसार में; वैरिणम्-सर्वभक्षी शत्रु।
परमात्मा श्रीकृष्ण कहते हैं- काम वासना जो रजोगुण के सम्पर्क में आने से उत्पन्न होती है और बाद में क्रोध का रूप धारण कर लेती है, इसे भोगों से कभी न अघाने वाले महान पापी के रूप में संसार का सर्वभक्षी शत्रु समझो।॥3 .37॥
( रजोगुणसमुद्भवः – आगे 14वें अध्याय के 7वें श्लोक में भगवान् कहेंगे कि तृष्णा (कामना ) और आसक्ति से रजोगुण उत्पन्न होता है और यहाँ यह कहते हैं कि रजोगुण से काम उत्पन्न होता है। इससे यह समझना चाहिये कि राग से काम उत्पन्न होता है और काम से राग बढ़ता है। तात्पर्य यह है कि सांसारिक पदार्थों को सुखदायी मानने से राग उत्पन्न होता है जिससे अन्तःकरण में उनका महत्त्व दृढ़ हो जाता है। फिर उन्हीं पदार्थों का संग्रह करने और उनसे सुख लेने की कामना उत्पन्न होती है। पुनः कामना से पदार्थों में राग बढ़ता है। यह क्रम जब तक चलता है तब तक पापकर्म से सर्वथा निवृत्ति नहीं होती। ‘काम एष क्रोध एषः ‘ मेरी मनचाही हो यही काम है (टिप्पणी प0 188.1)। उत्पत्तिविनाशशील जडपदार्थों के संग्रह की इच्छा संयोगजन्य सुख की इच्छा , सुखकी आसक्ति ये सब काम के ही रूप हैं। पापकर्म कहीं तो काम के वशीभूत होकर और कहीं क्रोध के वशीभूत होकर किया गया दिखता है। दोनों से अलग-अलग पाप होते हैं। इसलिये दोनों पद दिये। वास्तव में काम अर्थात् उत्पत्तिविनाशशील पदार्थों की कामना , प्रियता , आकर्षण ही समस्त पापों का मूल है (टिप्पणी प0 188.2)। कामना में बाधा लगने पर काम ही क्रोध में परिणत हो जाता है। इसलिये भगवान ने एक कामना को ही पापों का मूल बताने के लिये उपर्युक्त पदों में एकवचन का प्रयोग किया है। कामना की पूर्ति होने पर लोभ उत्पन्न होता होता है (टिप्पणी प0 188.3) और कामना में बाधा पहुँचाने पर (बाधा पहुँचाने वाले पर) क्रोध उत्पन्न होता है। यदि बाधा पहुँचाने वाला अपने से अधिक बलवान् हो तो क्रोध उत्पन्न न होकर भय उत्पन्न होता है। इसलिये गीता में कहीं-कहीं कामना और क्रोध के साथ-साथ भय की भी बात आयी है जैसे ‘वीतरागभयक्रोधाः’ (4। 10) और ‘विगतेच्छाभयक्रोधः’ (5। 28)। कामनासम्बन्धी विशेष बात – कामना सम्पूर्ण पापों , सन्तापों , दुःखों आदि की जड़ है। कामना वाले व्यक्ति को जाग्रत में सुख मिलना तो दूर रहा , स्वप्न में भी कभी सुख नहीं मिलता – ‘काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं ‘ (मानस 7। 90। 1)। जो चाहते हैं वह न हो और जो नहीं चाहते वह हो जाय इसी को दुःख कहते हैं। यदि चाहते और नहीं चाहते को छोड़ दें तो फिर दुःख है ही कहाँ ? नाशवान् पदार्थों की इच्छा ही कामना कहलाती है। अविनाशी परमात्मा की इच्छा कामना के समान प्रतीत होती हुई भी वास्तव में कामना नहीं है क्योंकि उत्पत्तिविनाशशील पदार्थों की कामना कभी पूरी नहीं होती बल्कि बढ़ती ही रहती है पर परमात्मा की इच्छा (परमात्मप्राप्ति होने पर) पूरी हो जाती है। दूसरी बात कामना अपने से भिन्न वस्तु की होती है और परमात्मा अपने से अभिन्न हैं। इसी प्रकार सेवा (कर्मयोग) , तत्त्वज्ञान (ज्ञानयोग) और भगवत्प्रेम(भक्तियोग) की इच्छा भी कामना नहीं है। परमात्मप्राप्ति की इच्छा वास्तव में जीवन की वास्तविक आवश्यकता (भूख) है। जीव को आवश्यकता तो परमात्मा की है पर विवेक के दब जाने पर वह नाशवान् पदार्थों की कामना करने लगता है। एक शङ्का हो सकती है कि कामना के बिना संसार का कार्य कैसे चलेगा ? इसका समाधान यह है कि संसार का कार्य वस्तुओं से , क्रियाओं से चलता है , मन की कामना से नहीं। वस्तुओं का सम्बन्ध कर्मों से होता है चाहे वे कर्म पूर्व के (प्रारब्ध) हों अथवा वर्तमान के (उद्योग)। कर्म बाहर के होते हैं और कामनाएँ भीतर की। बाहरी कर्मों का फल भी (वस्तु , परिस्थिति आदि के रूप में ) बाहरी होता है। कामना का सम्बन्ध फल (पदार्थ , परिस्थिति आदि) की प्राप्ति के साथ है ही नहीं। जो वस्तु कर्म के अधीन है वह कामना करने से कैसे प्राप्त हो सकती है ? संसार में देखते ही हैं कि धन की कामना होने पर भी लोगों की दरिद्रता नहीं मिटती। जीवन्मुक्त महापुरुषों को छोड़कर शेष सभी व्यक्ति जीने की कामना रखते हुए ही मरते हैं। कामना करें या न करें जो फल मिलने वाला है वह तो मिलेगा ही। तात्पर्य यह है कि जो होने वाला है वह तो होकर ही रहेगा और जो नहीं होनेवाला है वह कभी नहीं होगा चाहे उसकी कामना करें या न करें। जैसे कामना न करने पर भी प्रतिकूल परिस्थिति आ जाती है , ऐसे ही कामना न करने पर अनुकूल परिस्थिति भी आयेगी ही। रोग की कामना किये बिना भी रोग आता है और कामना किये बिना भी निरोगता रहती है। निन्दा-अपमान की कामना न करने पर भी निन्दा-अपमान होते हैं और कामना किये बिना भी प्रशंसा-सम्मान होते हैं। जैसे प्रतिकूल परिस्थिति कर्मों का फल हैं ऐसे ही अनकूल परिस्थिति भी कर्मों का ही फल है इसलिये वस्तु , परिस्थिति आदि का प्राप्त होना अथवा न होना कर्मों से सम्बन्ध रखता है कामना से नहीं। कामना तात्कालिक सुख की भी होती है और भावी सुख की भी। भोग और संग्रह की इच्छा तात्कालिक सुख की कामना है और कर्मफलप्राप्ति की इच्छा भावी सुख की कामना है। इन दोनों ही कामनाओं में दुःख ही दुःख है। कारण कि कामना केवल वर्तमान में ही दुःख नहीं देती बल्कि भावी जन्म में कारण होने से भविष्य में भी दुःख देती है। इसलिये इन दोनों ही कामनाओं का त्याग करना चाहिये। कर्म और विकर्म (निषिद्धकर्म) दोनों ही कामना के कारण होते हैं। कामना के कारण कर्म होते हैं और कामना के अधिक बढ़ने पर विकर्म होते हैं। कामना के कारण ही असत में आसक्ति दृढ़ होती है। कामना न रहने से असत् से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। कामना पूरी हो जोने पर हम उसी अवस्थामें आ जाते हैं जिस अवस्था में हम कामना उत्पन्न होने से पहले थे। जैसे किसी के मन में कामना उत्पन्न हुई कि मेरे को सौ रुपये मिल जायँ। इसके पहले उसके मन में सौ रुपये पाने की कामना नहीं थी अतः अनुभव से सिद्ध हुआ कि कामना उत्पन्न होनेवाली है। जब तक सौ रुपयों की कामना उत्पन्न नहीं हुई थी तब तक निष्कामता की स्थिति थी। उद्योग करनेपर यदि प्रारब्धवशात् सौ रुपये मिल जायँ तो वही निष्कामता की स्थिति पुनः आ जाती है परन्तु सांसारिक सुख कि आसक्ति के कारण वह स्थिति ठहरती नहीं और नयी कामना उत्पन्न हो जाती है कि मेरे को हजार रुपये मिल जायँ। इस प्रकार न तो कामना पूरी होती है और न तृप्ति ही पूरी होती है। कोरे परिश्रम के सिवा कुछ हाथ नहीं लगता । काम अर्थात् सांसारिक पदार्थों की कामना का त्याग करना कठिन नहीं है। थोड़ा गहरा विचार करें कि वास्तव में कामना छूटती ही नहीं अथवा टिकती ही नहीं । पता लगेगा कि वास्तव में कामना टिकती ही नहीं वह तो निरन्तर मिटती ही जाती है किन्तु मनुष्य नयी-नयी कामनाएँ करके उसे बनाये रखता है। कामना उत्पन्न होती है और उत्पन्न होने वाली वस्तु का मिटना अवश्यम्भावी है। इसलिये कामना स्वतः मिटती है। अगर मनुष्य नयी कामना न करे तो पुरानी कामना कभी पूरी होकर और कभी न पूरी होकर स्वतः मिट जाती है। कामना की पूर्ति सभी के और सदा के लिये नहीं है परन्तु कामना का त्याग सभी के लिये और सदा के लिये है। कारण कि कामना अनित्य और त्याग नित्य है। निष्काम होने में कठिनाई क्या है ? हम निर्मम नहीं होते यही कठिनाई है। यदि हम निर्मम हो जायँ तो निष्काम होने की शक्ति आ जायगी और निष्काम होने से असङ्ग होने की शक्ति आ जायगी। जब निर्ममता , निष्कामता और असङ्गता आ जाती है तब निर्विकारता , शान्ति और स्वाधीनता स्वतः आ जाती है। एक मार्मिक बात पर ध्यान दें। हम कामनाओं का त्याग करना बड़ा कठिन मानते हैं परन्तु विचार करें कि यदि कामनाओं का त्याग करना कठिन है तो क्या कामनाओं की पूर्ति करना सुगम है ? सब कामनाओं की पूर्ति संसार में आज तक किसी को नहीं हुई। हमारी तो बात ही क्या भगवान के पिता (दशरथजी ) की भी कामना पूरी नहीं हुई । अतः कामनाओं की पूर्ति होना असम्भव है। पर कामनाओं का त्याग करना असम्भव नहीं है। यदि हम ऐसा मानते हैं कि कामनाओं का त्याग करना कठिन है तो यह कठिन बात भी असम्भव बात अर्थात कामनाओं की पूर्ति की अपेक्षा सुगम ही जान पड़ती है क्योंकि कामनाओं का त्याग तो हो सकता है पर कामनाओं की पूर्ति हो ही नहीं सकती। इसलिये कामनाओं की पूर्ति की अपेक्षा कामनाओं का त्याग करना सुगम ही है। गलती यही होती है कि जो कार्य कर नहीं सकते उसके लिये उद्योग करते हैं और जो कार्य कर सकते हैं उसे करते ही नहीं। इसलिये साधक को कामनाओं का त्याग करना चाहिये जो कि वह कर सकता है। कामनाओं के चार भेद हैं (1) केवल शरीरनिर्वाहमात्र की आवश्यक कामना को पूरा करे (टिप्पणी प0 190.1)। (2) जो कामना व्यक्तिगत एवं न्याययुक्त हो और जिसको पूरा करना हमारी सामर्थ्य से बाहर हो उसको भगवान् के अर्पण कर के मिटा दे (टिप्पणी प0 190.2)। (3) दूसरों की उस कामना को पूरी कर दे जो न्याययुक्त और हितकारी हो तथा जिसको पूरी करने की सामर्थ्य हमारे में हो। इस प्रकार दूसरों की कामना पूरी करने पर हमारे में कामना त्यागकी सामर्थ्य आती है। (4) उपर्युक्त तीनों प्रकार की कामनाओं के अतिरिक्त दूसरी सब कामनाओं को विचार के द्वारा मिटा दे। महाशनो महापाप्मा कोई वैरी ऐसा होता है जो भेंट , पूजा अथवा अनुनय-विनय से शान्त हो जाता है पर यह काम ऐसा वैरी है जो किसी से भी शान्त नहीं होता। इस काम की कभी तृप्ति नहीं होती – “बुझै न काम अगिनि तुलसी कहुँ बिषयभोग बहु घी ते”।। (विनयपत्रिका 198) जैसे धन मिलने पर धन की बढ़ती ही चली जाती है ऐसे ही ज्यों-ज्यों भोग मिलते हैं त्यों ही त्यों कामना बढ़ती ही चली जाती है। इसलिये कामना को ‘महाशनः’ कहा गया है।कामना ही सम्पूर्ण पापों का कारण है। चोरी डकैती हिंसा आदि समस्त पाप कामना से ही होते हैं। इसलिये कामना को महापाप्मा कहा गया है। कामना उत्पन्न होते ही मनुष्य अपने कर्तव्य से अपने स्वरूप से और अपने इष्ट (भगवान् ) से विमुख हो जाता है और नाशवान् संसारके सम्मुख हो जाता है। नाशवान के सम्मुख होने से पाप होते हैं और पापों के फलस्वरूप नरकों तथा नीच योनियों की प्राप्ति होती है। संयोगजन्य सुख की कामना से ही संसार सत्य प्रतीत होता है और प्रतिक्षण बदलने वाले शरीरादि पदार्थ स्थिर दिखायी देते हैं। सांसारिक पदार्थों को स्थिर मानने से ही मनुष्य उनसे सुख भोगता है और उनकी इच्छा करता है। सुखभोग के समय संसार की क्षणभङ्गुरता की ओर दृष्टि नहीं जाती और मनुष्य भोग को तथा अपने को भी स्थिर देखता है। जो प्रतिक्षण मर रहा है , नष्ट हो रहा है , उस संसार से सुख लेने की इच्छा कैसे हो सकती है ? पर-संसार प्रतिक्षण मर रहा है इस जानकारी का तिरस्कार करने से ही सांसारिक सुखभोग की इच्छा होती है। चलचित्र (सिनेमा ) में पके हुए अंगूर देखने पर भी उन्हें खाने की इच्छा नहीं होती यदि होती है तो सिद्ध हुआ कि हमने उसे स्थिर माना है। परिवर्तनशील संसार को स्थिर मानने से वास्तव में जो स्थिर तत्त्व है उस परमात्म तत्त्व की तरफ अथवा अपने स्वरूप की तरफ दृष्टि जाती ही नहीं। उधर दृष्टि न जाने से मनुष्य उससे विमुख होकर नाशवान् सुख भोग में फँस जाता है। इससे सिद्ध होता है कि वास्तविक तत्त्व से विमुख हुए बिना कोई सांसारिक भोग भोगा ही नहीं जा सकता और रागपूर्वक सांसारिक भोग भोगने से मनुष्य परमात्मा से विमुख हो ही जाता है। भोगबुद्धि से सांसारिक भोग भोगने वाला मनुष्य हिंसारूप पाप से बच ही नहीं सकता। वह अपनी भी हिंसा (पतन) करता है और दूसरों की भी। जैसे कोई मनुष्य धन का संग्रह करके उससे भोगों को भोगता है तो उसे देखकर निर्धनों के हृदय में धन और भोगों के अभाव का विशेष दुःख होता है यह उनकी हिंसा हुई। भोगों को भोगकर वह स्वयं अपनी भी हिंसा (पतन) करता है क्योंकि स्वयं परमात्मा का चेतन अंश होते हुए भी जड (धन) को महत्त्व देने से वह वस्तुतः जड का दास हो जाता है जिससे उसका पतन हो जाता है। संसार के सब भोगपदार्थ सीमित होते हैं अतः मनुष्य जितना भोग भोगता है उतना भोग दूसरों के हिस्से से ही आता है। हाँ , शरीरनिर्वाहमात्र के लिये पदार्थों को स्वीकार करने से मनुष्य को पाप नहीं लगता। शरीरनिर्वाह में भी शास्त्रों में केवल अपने लिये भोग भोगने का निषेध है। अपने माता-पिता , गुरु , बालक , स्त्री , वृद्ध आदि को शरीरनिर्वाह के पदार्थ पहले देकर फिर स्वयं लेने चाहिये। भोगबुद्धि से भोग भोगने वाला पुरुष अपना तो पतन करता है , भोग्य वस्तुओं का दुरुपयोग करके उनका नाश करता है और अभावग्रस्त पुरुषों की हिंसा करता है परन्तु जीवन्मुक्त महापुरुष के विषय में यह बात लागू नहीं होती। उसके द्वारा हिंसारूप पाप नहीं होता क्योंकि उसमें भोगबुद्धि नहीं होती और उसके द्वारा निष्कामभाव से निर्वाहमात्र के लिये शास्त्रविहित क्रियाएँ होती हैं (गीता 4। 21 18। 17)। उस महापुरुष के उपयोग में आने वाली वस्तुओं का विकास होता है नाश नहीं अर्थात् उसके पास आने पर वस्तुओं का सदुपयोग होता है जिससे वे सार्थक हो जाती हैं। जब तक संसार में उस महापुरुष का कहलाने वाला शरीर रहता है तब तक उसके द्वारा स्वतः स्वाभाविक प्राणियों का उपकार होता रहता है। शरीरनिर्वाहमात्र की आवश्यकता ‘महाशनः’ और ‘महापाप्मा ‘ नहीं है। कारण कि शरीरनिर्वाहमात्र की आवश्यकता ,कामना नहीं है। आवश्यकता की पूर्ति होती है जैसे भूख लगी और भोजन करने से तृप्ति हो गयी परन्तु कामना की वृद्धि होती है। ‘विद्ध्येनमिह वैरिणम्’ यद्यपि वास्तव में सांसारिक पदार्थों की कामना का त्याग होने पर ही सुख-शान्ति का अनुभव होता है तथापि मनुष्य अज्ञानवश पदार्थों से सुख का होना मान लेता है। इस प्रकार मनुष्य ने पदार्थों की कामना को सुख का कारण मानकर उसे अपना मित्र और हितैषी मान रखा है। इस मान्यता के कारण कामना कभी मिटती नहीं। इसलिये भगवान् यहाँ कहते हैं कि इस कामना को अपना मित्र नहीं बल्कि वैरी जानो। कामना मनुष्य की वैरी इसलिये है कि यह मनुष्य के विवेक को ढककर उसे पापों में प्रवृत्त कर देती है। संसार के सम्पूर्ण पापों दुःखों नरकों आदि के मूल में एक कामना ही है। इस लोक और परलोक में जहाँ कहीं कोई दुःख पा रहा है उसमें असत् की कामना ही कारण है। कामना से सब प्रकार के दुःख होते हैं और सुख कोई सा भी नहीं होता। विशेष बात – काम को नष्ट करने का मुख्य और सरल उपाय है दूसरों की सेवा करना उन्हें सुख पहुँचाना। अन्य शरीरधारी तो दूसरे हैं ही अपने कहलाने वाले शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि और प्राण भी दूसरे ही हैं। अतः इनका निर्वाह भी सेवाबुद्धि से करना है भोगबुद्धि से नहीं। इनसे सुख नहीं लेना है। कर्मयोग में स्थूलशरीर से होने वाली क्रिया सूक्ष्मशरीर से होने वाला चिन्तन और कारण शरीर से होने वाली स्थिरता तीनों ही अपने लिये नहीं हैं बल्कि संसार के लिये ही हैं। कारण कि स्थूलशरीर की स्थूलसंसार के साथ सूक्ष्मशरीर की सूक्ष्मसंसार के साथ और कारणशरीर की कारणसंसार के साथ एकता है। अतः शरीर पदार्थ और क्रिया से दूसरोंकी सेवा करना तो उचित है पर अपने में सेवकपन का अभिमान करना अनुचित है। सूक्ष्मशरीर से परहित चिन्तन करना तो उचित है पर उससे सुख लेना अनुचित है। कारणशरीर से स्थिर होना तो उचित है पर स्थिरता का सुख लेना अनुचित है (टिप्पणी प0 192)। इस प्रकार सुख न लेने से फल की आसक्ति मिट जाती है फल की आसक्ति मिटने पर कर्म की आसक्ति सुगमतापूर्वक मिट जाती है। मेरा आदेश चले अमुक व्यक्ति मेरी आज्ञा में चले अमुक वस्तु मेरे काम आ जाय मेरी बात रह जाय ये सब कामना के ही स्वरूप हैं। उत्पत्तिविनाशशील (असत्) संसार से कुछ लेने की कामना महान् अनर्थ करने वाली है। दूसरों की न्याययुक्त कामना (जिसमें दूसरे का हित हो और जिसे पूर्ण करने की सामर्थ्य हमारे में हो) को पूरी करने से अपने में कामना के त्याग का बल आ जाता है। दूसरों की कामना पूरी न भी कर सकें तो भी हृदय में पूरी करने का भाव रहना ही चाहिये। ‘तादात्म्य’ अहंता (अपने को शरीर मानना) , ममता (शरीरादि पदार्थों को अपना मानना) और कामना (अमुक वस्तु मिल जाय ऐसा भाव) इन तीनों से ही जीव संसार में बँधता है। ‘तादात्म्य ‘ से परिच्छिन्नता ममता से विकार और कामना से अशान्ति पैदा होती है। कामना के त्याग से ममता और ममता के त्याग से तादात्म्य मिटता है। कर्मयोगी सिद्धान्त से इनमें किसी के साथ अपना सम्बन्ध नहीं मानता क्योंकि वह शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , अहम् , पदार्थ आदि किसी को भी अपना और अपने लिये नहीं मानता वह इन शरीरादि को केवल संसार का और संसार की सेवा के लिये ही मानता है जो कि वास्तव में है। किसी को भी दुःख न देने का भाव होने पर सेवा का आरम्भ हो जाता है। अतः साधक के अन्तःकरण में किसी को भी दुःख न हो यह भाव निरन्तर रहना चाहिये। भूल से अपने कारण किसी को दुःख हो भी जाय तो उससे क्षमा माँग लेनी चाहिये। वह क्षमा न करे तो भी कोई डर नहीं। कारण कि सच्चे हृदय से क्षमा माँगने वाले की क्षमा भगवान की ओर से स्वतः होती है। सेवा करने में साधक सदा सावधान रहे कि कहीं सेवा के बदले में कुछ लेने का भाव उसमें न आ जाय। इस प्रकार सेवा करने से कामरूप वैरी सुगमतापूर्वक नष्ट हो जाता है। यह पाप है ऐसी जानकारी होने पर भी मनुष्य पाप में प्रवृत्त हो जाता है अतः इस जानकारी का प्रभाव आचरण में न आने का क्या कारण है इसका विवेचन भगवान् आगे के दो श्लोकों में करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )