Shrimad Bhagavad Gita Chapter 5

 

 

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अध्याय पाँच : कर्म संन्यास योग

 

07-12 सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण और उनकी महिमा

 

 

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सऊं त्यक्त्वा करोति यः ।

लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥ 5 .10॥

 

ब्रह्मण-भगवान् को; आधाय–समर्पित; कर्माणि-समस्त कार्यों को; सङ्गगम्-आसक्ति; त्यक्त्वा-त्यागकर; करोति-करना ; यः-जो; लिप्यते-प्रभावित होता है; न- कभी नहीं; स:-वह; पापेन-पाप से; पद्मपत्र – कमलपत्र; इव-के समान; अम्भसा-जल द्वारा।

 

जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है अर्थात जो अपने कर्मफल भगवान को समर्पित कर सभी प्रकार से आसक्ति रहित होकर कर्म करते हैं, वे पापकर्म से उसी प्रकार से अछूते रहते हैं जिस प्रकार से कमल के पत्ते को जल स्पर्श नहीं कर पाता॥5 .10॥

 

(‘ब्रह्मण्याधाय कर्माणि’ शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , प्राण आदि सब भगवान के ही हैं अपने हैं ही नहीं , अतः इनके द्वारा होने वाली क्रियाओं को भक्तियोगी अपनी कैसे मान सकता है ? इसलिये उसका यह भाव रहता है कि मात्र क्रियाएँ भगवान् के द्वारा ही हो रही हैं और भगवान् के लिये ही हो रही हैं मैं तो निमित्तमात्र हूँ। भगवान् ही अपनी इन्द्रियों के द्वारा आप ही सम्पूर्ण क्रियाएँ करते हैं , इस बात को ठीक-ठीक धारण करके सम्पूर्ण क्रियाओं के कर्तापन को भगवान में ही मानना यही उपर्युक्त पदों का अर्थ है। शरीरादि वस्तुएँ अपनी हैं ही नहीं बल्कि मिली हुई हैं और बिछुड़ रही हैं। ये केवल भगवान के नाते भगवत्प्रीत्यर्थ दूसरों की सेवा करने के लिये मिली हैं। इन वस्तुओं पर हमारा स्वतन्त्र अधिकार नहीं है अर्थात् इनको अपने इच्छानुसार न तो रख सकते हैं , न बदल सकते हैं और न मरने पर साथ ही ले जा सकते हैं। इसलिये इन शरीरादि को तथा इनसे होने वाली क्रियाओं को अपनी मानना ईमानदारी नहीं है। अतः मनुष्य को ईमानदारी के साथ जिसकी ये वस्तुएँ हैं उसी की अर्थात् भगवान की मान लेनी चाहिये। सम्पूर्ण क्रियाओं और पदार्थों को कर्मयोगी संसार के ज्ञानयोगी प्रकृति के और भक्तियोगी भगवान् के अर्पण करता है। प्रकृति और संसार दोनों के ही स्वामी भगवान् हैं। अतः क्रियाओं और पदार्थों को भगवान के अर्पण करना ही श्रेष्ठ है। “सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः” किसी भी प्राणी , पदार्थ , शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , प्राण , क्रिया आदि में किञ्चिन्मात्र भी राग , खिंचाव , आकर्षण , लगाव , महत्त्व , ममता , कामना आदि का न रहना ही आसक्ति का सर्वथा त्याग करना है।शास्त्रीय दृष्टि से अज्ञान जन्म-मरण का हेतु होते हुए भी साधन की दृष्टि से राग ही जन्म-मरण का मुख्य हेतु है “कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु” (गीता 13। 21)। राग पर ही अज्ञान टिका हुआ है इसलिये राग मिटने पर अज्ञान भी मिट जाता है। इस राग या आसक्ति से ही कामना पैदा होती है “सङ्गात्संजायते कामः “(गीता 2। 62)। कामना ही सम्पूर्ण पापों की जड़ है (गीता 3। 37)। इसलिये यहाँ पापों के मूल कारण आसक्ति का त्याग करने की बात आयी है क्योंकि इसके रहते मनुष्य पापों से बच नहीं सकता और इसके न रहने से मनुष्य पापों से लिप्त नहीं होता। किसी भी क्रिया को करते समय क्रियाजन्य सुख लेने से तथा उसके फल में आसक्त रहने से उस क्रिया का सम्बन्ध छूटता नहीं बल्कि छूटने की अपेक्षा और बढ़ता है। किसी भी छोटी या बड़ी क्रिया के फलरूप में कोई वस्तु चाहना ही आसक्ति नहीं है बल्कि क्रिया करते समय भी अपने में महत्त्व का , अच्छेपन का आरोप करना और दूसरों से अच्छा कहलवाने का भाव रखना भी आसक्ति ही है। इसलिये अपने लिये कुछ भी नहीं करना है। जिस कर्म से अपने लिये किसी प्रकार का किञ्चिन्मात्र भी सुख पाने की इच्छा है वह कर्म अपने लिये हो जाता है। अपनी सुख-सुविधा और सम्मान की इच्छा का सर्वथा त्याग करके कर्म करना ही उपर्युक्त पदों का अभिप्राय है। “लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा” यह कितनी विशेष बात है कि भगवान के सम्मुख होकर भक्तियोगी संसार में रहकर सम्पूर्ण भगवदर्थ कर्म करते हुए भी कर्मों से नहीं बँधता , जैसे कमल का पत्ता जल में उत्पन्न होकर और जल में रहकर भी जल से निर्लिप्त रहता है । ऐसे ही भक्तियोगी संसार में रहकर सम्पूर्ण क्रियाएँ करने पर भी भगवान के सम्मुख होने के कारण संसार में सर्वदा-सर्वथा निर्लिप्त रहता है। भगवान से विमुख होकर संसार की कामना करना ही सब पापों का मुख्य हेतु है। कामना आसक्ति से उत्पन्न होती है। आसक्ति का सर्वथा अभाव होने से कामना नहीं रह सकती इसलिये पाप होने की सम्भावना ही नहीं रहती। धुएँ से अग्नि की तरह सभी कर्म किसी न किसी दोष से युक्त होते हैं (गीता 18। 48) परन्तु जिसने आशा , कामना , आसक्ति का त्याग कर दिया है उसे ये दोष नहीं लगते। आसक्तिरहित होकर भगवदर्थ कर्म करने के प्रभाव से सम्पूर्ण संचित पाप विलीन हो जाते हैं (गीता 9। 27 28)। अतः भक्तियोगी का किसी प्रकार से भी पाप से सम्बन्ध नहीं रहता। यहाँ ‘पापेन’ पद कर्मों से होने वाले उस पापपुण्यरूप फल का वाचक है जो आगामी जन्मारम्भ में कारण होता है। भक्तियोगी उस पापपुण्यरूप फल से कभी लिप्त नहीं होता अर्थात् बँधता नहीं। इसी बात को 9वें अध्याय के 28वें श्लोक में शुभाशुभ ‘फलैरेवं मोक्ष्य से कर्मबन्धनैः’ पदों से कहा गया है। सम्बन्ध   अब भगवान् कर्मयोगी के कर्म करने की शैली बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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