Shrimad Bhagavad Gita Chapter 5

 

 

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अध्याय पाँच : कर्म संन्यास योग

 

07-12 सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण और उनकी महिमा

 

कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि ।

योगिनः कर्म कुर्वन्ति संग त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥5.11॥

 

कायेन-शरीर के साथ; मनसा-मन से; बुद्धया-बुद्धि से; केवलैः-केवल; इन्द्रियैः-इन्द्रियों से; अपि-भी; योगिनः-योगी; कर्म-कर्म; कुर्वन्ति-करते हैं; सङ्गम्-आसक्ति; त्यक्त्वा-त्याग कर; आत्म-आत्मा की; शुद्धये-शुद्धि के लिए योगीजन आसक्ति को त्याग कर अपने शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि द्वारा केवल अपने शुद्धिकरण के उद्देश्य से कर्म करते हैं।

 

कर्मयोगी अर्थात योगीजन ममता और आसक्ति को त्याग कर अपने शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि द्वारा केवल अपने अन्तः करण के शुद्धिकरण ( आत्मशुद्धि या चित्तशुद्धि ) के उद्देश्य से कर्म करते हैं। ॥5 .11॥

 

( “योगिनः यहाँ योगिनः ” पद कर्मयोगी के लिये आया है। जो योगी भगवदर्पणबुद्धि से कर्म करते हैं वे भक्तियोगी कहलाते हैं परन्तु जो योगी केवल संसार की सेवा के लिये निष्कामभावपूर्वक कर्म करते हैं वे कर्मयोगी कहलाते हैं। कर्मयोगी अपने कहलाने वाले शरीर , इन्द्रियाँ , मन आदि से कर्म करते हुए भी उन्हें अपना नहीं मानता बल्कि संसार का ही मानता है। कारण कि शरीरादि की संसार के साथ एकता है। “कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि” जिनको साधारण मनुष्य अपनी मानते हैं वे शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि वास्तव में किसी भी दृष्टि से अपनी नहीं हैं बल्कि अपने को मिली हुई हैं और बिछुड़ने वाली हैं। इनको अपनी मानना सर्वथा भूल है। इन सबकी संसार के साथ स्वतःसिद्ध एकता है। विचारपूर्वक देखा जाय तो शरीरादि पदार्थ किसी भी दृष्टि से अपने नहीं हैं। मालिक की दृष्टि से देखें तो ये भगवान के हैं , कारण की दृष्टि से देखें तो ये प्रकृति हैं और कार्य की दृष्टि से देखें तो ये संसार के (संसार से अभिन्न) हैं। इस प्रकार किसी भी दृष्टि से इनको अपना मानना , इनमें ममता रखना भूल है। ममता को सर्वथा मिटाने के लिये ही यहाँ “केवलैः” पद प्रयुक्त हुआ है। यहाँ केवलैः पद बहुवचन होने से इन्द्रियों का ही विशेषण है परन्तु इन्द्रियों से ही ममता हटाने के लिये कहा जाय – शरीर , मन  बुद्धि से नहीं – ऐसा सम्भव नहीं है। शरीरादि का सम्बन्ध समष्टि संसार के साथ है। व्यष्टि कभी समष्टि से अलग नहीं हो सकती। इसलिये व्यष्टि (शरीरादि) से सम्बन्ध जोड़ने पर समष्टि (संसार) से स्वतः सम्बन्ध जुड़ जाता है। जैसे लड़की से विवाह होने पर अर्थात् सम्बन्ध जुड़ने पर सास , ससुर आदि ससुराल के सभी सम्बन्धियों से अपने-आप सम्बन्ध जुड़ जाता है ऐसे ही संसार की किसी भी वस्तु (शरीरादि ) से सम्बन्ध जुड़ने पर अर्थात् उसे अपनी मानने पर पूरे संसार से अपने आप सम्बन्ध जुड़ जाता है। अतः यहाँ केवलैः पद शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि सब में ही साधक को ममता हटाने की प्रेरणा करता है (टिप्पणी प0 295.1)। वास्तव में कर्ता का स्वयं निर्मम होना ही आवश्यक है। यदि कर्ता स्वयं निर्मम हो तो शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि सब जगह से ममता सर्वथा मिट जाती है। कारण कि वास्तव में शरीर , इन्द्रियाँ आदि स्वरूप से सर्वथा भिन्न हैं , अतः इनमें ममता केवल मानी हुई है वास्तव में है नहीं। कर्मयोग की साधना में फल की इच्छा का त्याग मुख्य है। (गीता 5। 12)। साधारण लोग फलप्राप्ति के लिये कर्म करते हैं पर कर्मयोगी फल की आसक्ति को मिटाने के लिये कर्म करता है परन्तु जो शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , प्राण आदि को अपना मानता रहता है वह फल की इच्छा का त्याग कर ही नहीं सकता (टिप्पणी प0 295.2)। कारण कि उसका ऐसा भाव रहता है कि शरीरादि अपने हैं तो उनके द्वारा किये गये कर्मों का फल भी अपने को मिलना चाहिये। इस प्रकार शरीरादि को अपना मानने से स्वतः फल की इच्छा उत्पन्न होती है। इसलिये फल की इच्छा को मिटाने के लिये शरीरादि को कभी भी अपना न मानना अत्यन्त आवश्यक है। केवलैः पद का तात्पर्य है कि जैसे वर्षा बरसती है और उससे लोगों का हित होता है परन्तु उसमें ऐसा भाव नहीं होता कि मैं बरसती हूँ , मेरी वर्षा है कि जिससे दूसरों का हित होगा , दूसरों को सुख होगा। ऐसे ही इन्द्रियों आदि के द्वारा होने वाले हित में भी अपनापन मालूम न दे परन्तु शरीर , मन , बुद्धि , इन्द्रियों के द्वारा किसी का अभीष्ट हो गया , किसी की मनचाही बात हो गयी , इन क्रियाओं को लेकर अपने मन में खुशी आती है तो मन , बुद्धि आदि में केवलपना नहीं रहा बल्कि उनके साथ सम्बन्ध जुड़ गया , ममता हो गयी। ‘सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये’ पीछे 10वें श्लोक में भी ‘सङ्गं त्यक्त्वा’ पद आये हैं अतः इनकी व्याख्या वहीं देखनी चाहिये। साधारणतः मल विक्षेप और आवरणदोष के दूर होने को अन्तःकरण की शुद्धि माना जाता है परन्तु वास्तव में अन्तःकरण की शुद्धि है शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि से ममता का सर्वथा मिट जाना। शरीरादि कभी नहीं कहते कि हम तुम्हारे हैं और तुम हमारे हो। हम ही उनको अपना मान लेते हैं। उनको अपना मानना ही अशुद्धि है – ममता मल जरि जाइ (मानस 7। 117 क)। अतः शरीरादि के प्रति अहंता – ममतापूर्वक माने गये सम्बन्ध का सर्वथा अभाव ही आत्मशुद्धि है। इस श्लोकमें आये ‘केवलैः ‘ पद से शरीर ,इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि को अपना न मानने की बात आयी है अर्थात् वहाँ केवलैः पद में अपनापन हटाने का उद्देश्य है और यहाँ ‘आत्मशुद्धये ‘पद में अपनापन सर्वथा हटने की बात आयी है। तात्पर्य यह है कि अन्तःकरण की शुद्धि के लिये (अपनापन सर्वथा हटाने के उद्देश्य से) शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि को अपना न मानने पर भी इनमें सूक्ष्म अपनापन रह जाता है। उस सूक्ष्म अपनेपन का सर्वथा मिटना ही आत्मशुद्धि अर्थात् अन्तःकरण की शुद्धि है। अहंता में भी ममता रहती है। ममता सर्वथा मिटने पर जब अहंता में भी ममता नहीं रहती तब सर्वथा शुद्धि हो जाती है। ‘कर्म कुर्वन्ति’  शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि में जो सूक्ष्म अपनापन रह जाता है उसे सर्वथा दूर करने के लिये कर्मयोगी कर्म करते हैं। जब तक मनुष्य कर्म करते हुए अपने लिये किसी प्रकार का सुख चाहता है अर्थात् किसी फल की इच्छा रखता है और शरीर , इन्द्रियाँ , मन आदि कर्मसामग्री को अपनी मानता है तब तक वह कर्मबन्धन से मुक्त नहीं हो सकता। इसलिये कर्मयोगी फल की इच्छा का त्याग करके और कर्मसामग्री को अपनी न मानकर केवल दूसरों के हित के लिये कर्म करता है। कारण कि योगारूढ़ होने की इच्छावाले मननशील योगी के लिये (दूसरों के हित के लिये) कर्म करना ही हेतु कहा जाता है – ‘आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते’ (गीता 6। 3)। इस प्रकार दूसरों के हित के लिये वह ज्यों-ज्यों कर्म करता है त्यों ही त्यों ममता , आसक्ति मिटती चली जाती है और अन्तःकरण की शुद्धि होती चली जाती है। अब भगवान् आगे के श्लोक में अन्वय और व्यतिरेकरीति से कर्मयोग की महिमा का वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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