Shrimad Bhagavad Gita Chapter 5

 

 

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अध्याय पाँच : कर्म संन्यास योग

 

13-26 ज्ञानयोग का विषय

 

 

Bhagavad Gita Chapter 5

इहैव तैर्जितः सर्गों येषां साम्ये स्थितं मनः ।

निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥5 .19॥

 

इहैव-इस जीवन में; तै:-उनके द्वारा; र्जितः-विजयी; सर्गः-सृष्टि; येषाम् – जिनका; साम्ये-समता में; स्थितम्-स्थित; मन:-मन; निर्दोषम–दोषरहित; हि-निश्चय ही; समम्-समान; ब्रह्म-भगवान; तस्मात् – इसलिए; ब्रह्मणि-परम सत्य में; ते- वे; स्थिताः-स्थित हैं।

 

वे जिनका मन समता या समभाव में स्थित है, वे इसी जीवन में जन्म और मरण के चक्र से मुक्ति पा लेते हैं अर्थात उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया है। वे भगवान के समान दोष रहित तथा गुणों से संपन्न हो जाते हैं क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम है और इस प्रकार वे परमसत्य में स्थित हो जाते हैं ॥5 .19॥

 

(“येषां साम्ये स्थितं मनः” परमात्मतत्त्व अथवा स्वरूप में स्वाभाविक स्थिति का अनुभव होने पर जब मन-बुद्धि में राग-द्वेष , कामना , विषमता आदि का सर्वथा अभाव हो जाता है तब मन-बुद्धि में स्वतः स्वाभाविक समता आ जाती है लानी नहीं पड़ती। बाहर से देखने पर महापुरुष और साधारण पुरुष में खाना-पीना , चलना-फिरना आदि व्यवहार एक सा ही दीखता है पर महापुरुषों के अन्तःकरण में निरन्तर समता , निर्दोषता , शान्ति आदि रहती है और साधारण पुरुषों के अन्तःकरण में विषमता , दोष , अशान्ति आदि रहती है। जैसे पूर्व में और पश्चिम में दोनों ओर पर्वत हों तो पूर्व में सूर्य का उदय होना नहीं दिखता परन्तु पश्चिम में स्थित पर्वत की चोटी पर प्रकाश दिखने से सूर्य के उदय होने में कोई सन्देह नहीं रहता। कारण कि सूर्य का उदय हुए बिना पश्चिम के पर्वत पर प्रकाश दिखना सम्भव ही नहीं। ऐसे ही जिनके मन-बुद्धि पर मान-अपमान , निन्दा-स्तुति , सुख-दुःख आदि का कोई असर नहीं पड़ता तथा जिनके मन-बुद्धि , राग-द्वेष ,  हर्ष-शोक आदि विकारों से सर्वथा रहित हैं उनकी स्वरूप में स्वाभाविक स्थिति अवश्य होती है। कारण कि स्वरूप में स्वाभाविक स्थिति के बिना मन-बुद्धि में अटल और एकरस समता का रहना सम्भव ही नहीं है। “इहैव तैर्जितः सर्गः ” यहाँ “तैः” पद में बहुवचन देने का तात्पर्य यह है कि सभी मनुष्य परमात्मतत्त्व की प्राप्ति कर सकते हैं और सम्पूर्ण संसार पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। ‘इह एव’ पदों का तात्पर्य है कि मनुष्य जीतेजी वर्तमान में ही यहीं संसार को जीत सकता है अर्थात् संसार से मुक्त हो सकता है। शरीर , इन्द्रियाँ , मन ,  बुद्धि , प्राणी , पदार्थ , घटना , परिस्थिति आदि सब पर हैं और जो इनके अधीन रहता है उसे पराधीन कहते हैं। इन शरीरादि वस्तुओं में महत्त्वबुद्धि होना तथा इनकी आवश्यकता का अनुभव करना अर्थात् इनकी कामना करना ही इनके अधीन होना है। पराधीन पुरुष ही वास्तव में पराजित (हारा हुआ) है। जब तक पराधीनता नहीं छूटती तब तक वह पराजित ही रहता है। जिसके मन में सांसारिक वस्तुओं की कामना है वह मनुष्य अगर दूसरे प्राणी , राज्य आदि पर विजय प्राप्त कर ले तो भी वह वास्तव में पराजित ही है। कारण कि वह उन पदार्थों में महत्त्वबुद्धि रखता है और अपने जीवन को उनके अधीन मानता है। शरीर से विजय तो पशु भी प्राप्त कर लेता है पर वास्तविक विजय हृदय से वस्तु की अधीनता दूर होने पर ही प्राप्त होती है। पराजित व्यक्ति ही दूसरे को पराजित करना चाहता है , दूसरे को अपने अधीन बनाना चाहता है। वास्तव में अपने को पराजित किये बिना कोई दूसरे को पराजित कर ही नहीं सकता जैसे कोई राजा या विद्वान् किसी दूसरे पर विजय प्राप्त करना चाहता है तो उसे सबसे पहले अपनी सेना , सामर्थ्य , बुद्धि , विद्या आदि का सहारा लेना ही पड़ता है।कामना उत्पन्न होते ही मनुष्य पराधीन हो जाता है। यह पराधीनता कामना की पूर्ति न होने पर अथवा पूर्ति होने पर, दोनों ही अवस्थाओं में ज्यों की त्यों रहती है। कामना की पूर्ति न होने पर मनुष्य वस्तु के अभाव के कारण पराधीनता का अनुभव करता है और कामना की पूर्ति होने पर अर्थात् वस्तु के मिलने पर वह उस वस्तु के पराधीन हो जाता है क्योंकि उत्पत्तिविनाशशील वस्तुमात्र पर है। कामना की पूर्ति न होने पर तो मनुष्य को पराधीनता का अनुभव होता है पर कामना की पूर्ति होने पर बुद्धि में ऐसा अँधेरा छा जाता है कि पराधीन रहते हुए भी मनुष्य को पराधीनता का अनुभव नहीं होता बल्कि स्वाधीनता का अनुभव होता है । ज्ञानी महापुरुष में कामना का सर्वथा अभाव होने से वह पूर्णतः स्वाधीन हो जाता है। स्वाधीन पुरुष ही विजयी होता है परन्तु स्वाधीन पुरुष के मन में कभी किसी को पराजित करने का भाव नहीं आता। वह संसार की किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकता का अनुभव नहीं करता बल्कि संसार ही उसकी आवश्यकता का अनुभव करता है। जिसने संसार को जीत लिया है ऐसे समदर्शी महापुरुष को संसार का बड़ा से बड़ा सुख (प्रलोभन) भी आकृष्ट नहीं कर सकता और बड़ा से बड़ा दुःख भी विचलित नहीं कर सकता (गीता 6। 22)। उसके मन में संसार के किसी भी प्राणी , पदार्थ , परिस्थिति आदि की किञ्चिन्मात्र भी कामना , वासना , स्पृहा , तृष्णा आदि नहीं रहती। यद्यपि उसे अनुकूलता-प्रतिकूलता का ज्ञान होता है तथा उसके अनुसार यथोचित चेष्टा भी होती है तथापि अनुकूलता-प्रतिकूलता का उसके अन्तःकरण पर कोई असर नहीं पड़ता। ‘निर्दोषं हि समं ब्रह्म’ परमात्मतत्त्व में दोष , विकार या विषमता है ही नहीं। जितने भी दोष या विषमताएँ आती हैं वे सब प्रकृति से रागपूर्वक सम्बन्ध मानने से ही आती हैं। परमात्मतत्त्व प्रकृति के सम्बन्ध से सर्वथा निर्लिप्त है इसलिये उसमें किञ्चिन्मात्र भी दोष या विषमता नहीं है। ‘तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ‘ परमात्मतत्त्व निर्दोष और सम है इसलिये जिन महापुरुषों का अन्तःकरण निर्दोष और सम हो गया है , वे परमात्मतत्त्व में ही स्थित हैं। असत के सङ्ग से ही सम्पूर्ण दोषों और विषमताओं की उत्पत्ति होती है। संसार असत् है। असत् उसे कहते हैं जो प्रतिक्षण परिवर्तनशील है और मूल में जिसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। असत् से सम्बन्ध (तादात्म्य) रहते हुए दोषों और विषमताओं से बचना असम्भव है। महापुरुषों के अन्तःकरण में असत का महत्त्व न रहने से उन पर असत् का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। असत् का कोई प्रभाव न पड़ने से उनका अन्तःकरण निर्दोष और सम हो जाता है। निर्दोष और सम होने से उनकी परमात्मतत्त्व में स्वतः स्वाभाविक स्थिति हो जाती है जो कि पहले से ही है। जैसे जहाँ धुआँ है वहाँ अग्नि अवश्य है क्योंकि अग्नि के बिना धुआँ सम्भव ही नहीं ऐसे ही जिनके अन्तःकरण में समता है वे अवश्य ही परमात्मतत्त्व में स्थित हैं क्योंकि परमात्मतत्त्व में स्थिति हुए बिना पूर्ण समता आनी सम्भव ही नहीं।अपनी (स्वयं की) स्थिति परमात्मतत्त्व में अथवा समता में होने के कारण ही अन्तःकरण में समता आती है। इसलिये अन्तःकरण में समता आने पर ही उन महापुरुषों की यह पहचान होती है कि वे परमात्मतत्त्व में अथवा समता में स्थित हैं। इसी समता को गीता ने योग कहा है ‘समत्वं योग उच्यते’ (2। 48) और इसकी प्राप्ति को ही गीता मनुष्यजन्म की पूर्णता मानती है। ज्ञानयोग का यह प्रकरण 13वें श्लोक से चला है। 15वें श्लोक के अन्त में आये ‘जन्तवः’ पद से बहुवचन का प्रयोग आरम्भ हुआ है जो इस 19वें श्लोक तक चला है। सबमें बहुवचन आने का तात्पर्य है कि जो मनुष्य मोहित हो रहे थे वे सब के सब परमात्मतत्त्व को प्राप्त कर सकते हैं परन्तु प्रस्तुत श्लोक में ब्रह्मणि पद में एकवचन आया है जिसका तात्पर्य है कि सम्पूर्ण मनुष्यों को एक ही परमात्मतत्त्व की प्राप्ति होती है। मुक्ति चाहे ब्राह्मण की हो अथवा चाण्डाल की दोनों को एक ही तत्त्व की प्राप्ति होती है। भेद केवल शरीरों को लेकर है जो उपादेय है। तत्त्व को लेकर कोई भेद नहीं है। पहले जितने सनकादिक महात्मा हुए हैं उनको जो तत्त्व प्राप्त हुआ है वही तत्त्व आज भी प्राप्त होता है। पूर्वश्लोक में जिस स्थिति का वर्णन हुआ है उसकी प्राप्ति का साधन तथा सिद्ध के लक्षणों का वर्णन आगे के श्लोक में करते हैं।)

 

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