Bhagavad gita chapter 9

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Bhagavad gita chapter 9

 

 

राजविद्याराजगुह्ययोग-  नौवाँ अध्याय

 

01-06 परम गोपनीय ज्ञानोपदेश, उपासनात्मक ज्ञान, ईश्वर का विस्तार

07-10 जगत की उत्पत्ति का विषय

11-15 भगवान का तिरस्कार करने वाले आसुरी प्रकृति वालों की निंदा औरदेवी प्रकृति वालों के भगवद् भजन का प्रकार

16-19 सर्वात्म रूप से प्रभाव सहित भगवान के स्वरूप का वर्णन

20-25 सकाम और निष्काम उपासना का फल

26-34 निष्काम भगवद् भक्ति की महिमा

 

अध्याय नौ : राज विद्या योग

राज विद्या द्वारा योग

 

01-06 परम गोपनीय ज्ञानोपदेश, उपासनात्मक ज्ञान, ईश्वर का विस्तार

 

श्रीभगवानुवाच।

इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।

ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥9.1॥

 

श्रीभगवान् उवाच-परम प्रभु ने कहा; इदम्-इस; तु–लेकिन; ते-तुमको; गुह्यतमम् – अत्यन्त गूढ़; प्रवक्ष्यामि-मैं प्रदान करूँगा; अनसूयवे-ईर्ष्या न करने वाला; ज्ञानम्-ज्ञान; विज्ञान-अनुभूत ज्ञान; सहितम्-सहित; यत्-जिसे; ज्ञात्वा-जानकर; मोक्ष्यसे-मुक्त हो सकोगे; अशुभात्– भौतिक संसार के कष्ट।

 

परम प्रभु ने कहाः हे अर्जुन! क्योंकि तुम मुझसे ईर्ष्या नहीं करते इसलिए मैं तुम्हारे जैसे दोष दृष्टि रहित भक्त को विज्ञान सहित परम गुह्म ज्ञान बताऊँगा जिसे जानकर तुम इस दुःखरूप और जन्म मरण रूप भौतिक संसार से और उसके कष्टों और अशुभ से अर्थात संसार बंधन से मुक्त हो जाओगे ।

 

राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्‌ ।

प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्‌ ॥9.2॥

 

राजविद्या-विद्याओं का राजा; राजगुह्यम्-अत्यन्त गहन रहस्य का राजा; पवित्रम्-शुद्ध; इदम् – यह; उत्तमम्-सर्वोच्च; प्रत्यक्ष–प्रत्यक्ष; अवगमम्-प्रत्यक्ष समझा जाने वाला; धर्म्यम्-धर्म युक्त; सु-सुखम् अत्यन्त सरल; कर्तुम् – अभ्यास करने में; अव्ययम्-अविनाशी।

 

यह विज्ञान सहित ज्ञान राजविद्या अर्थात सभी विद्याओं का राजा और राजगुह्य अर्थात सब गुह्यों ( रहस्यों ) का राजा एवं अति पवित्र, अति उत्तम, प्रत्यक्ष ज्ञानवाला और धर्मयुक्त है, तथा करने में बड़ा सरल और अविनाशी है । जो इसका श्रवण करते हैं उन्हें यह शुद्ध कर देता है और यह प्रत्यक्ष अनुभूति कराने वाला है। धर्म की मर्यादा का पालन करने के लिए सरलता से इसका अभ्यास किया जा सकता है और यह नित्य प्रभावी है तथा सभी रहस्यों से सर्वाधिक गहन है ॥9.2॥

 

अश्रद्दधानाः परुषा धर्मस्यास्य परन्तप ।

अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥9.3॥

 

अश्रद्दधानाः-श्रद्धाविहीन लोग; पुरुषा:-व्यक्ति; धर्मस्य-धर्म के प्रति; अस्य-इस; परन्तप-शत्रु विजेता, अर्जुन; अप्राप्य–बिना प्राप्त किये; माम्-मुझको; निवर्तन्ते-लौटते हैं; मृत्युः-मृत्युः संसार–भौतिक संसार में; वर्त्मनि-मार्ग में।

 

हे शत्रु विजेता! वे लोग जो इस धर्म में श्रद्धा नहीं रखते वे मुझे प्राप्त नहीं कर सकते। वे जन्म-मृत्यु के मार्ग पर बार-बार इस संसार में लौटकर आते रहते हैं अर्थात मृत्युरूप संसार चक्र में भ्रमण करते रहते हैं।।9.3।।

 

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।

मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेषवस्थितः ॥9.4॥

 

मया-मेरे द्वारा; ततम्-व्याप्त है; इदम् – यह; सर्वम् – समस्त; जगत्-ब्रह्माण्डीय अभिव्यक्तियाँ; अव्यक्तमूर्तिना-अव्यक्त रूप द्वारा; मत्  स्थानि–मुझमें; सर्वभूतानि-समस्त जीवों में ; न-नहीं; च-भी; अहम्-मैं; तेषु-उनमें; अवस्थितः-निवास।

 

मुझ निराकार परमात्मा से यह सब जगत्‌ जल से बर्फ के सदृश परिपूर्ण है और सब भूत मेरे अंतर्गत संकल्प के आधार स्थित हैं, किंतु वास्तव में मैं उनमें स्थित नहीं हूँ अर्थात इस समूचे ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति मेरे अव्यक्त रूप में मेरे द्वारा व्याप्त है। सभी जीवित प्राणी मुझमें निवास करते हैं लेकिन मैं उनमें निवास नहीं करता॥9.4॥

 

न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् ।

भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥9.5॥

 

न–कभी नहीं; च-और; मत् स्थानि–मुझमें स्थित; भूतानि–सभी जीव; पश्य-देखो; मे–मेरा; योगम् ऐश्वरम्-दिव्य शक्ति; भूतभृत्-जीवों का निर्वाहक; न-नहीं; च-भी; भूतस्थ:-में रहते हैं; मम–मेरा; आत्मा-स्वयं; भूतभावन-सभी जीवों का सृजनकर्ता ;

 

वे सब भूत अर्थात जीव मुझमें स्थित नहीं हैं, किंतु मेरी दिव्य ईश्वरीय योगशक्ति को तो देखो कि भूतों अर्थात जीवों का धारण-पोषण करने वाला और भूतों या प्राणियों को उत्पन्न करने वाला भी स्वयं मैं या मेरा आत्मा वास्तव में उन भूतों या प्राणियों में स्थित नहीं है॥9.5॥

 

[यह सब संसार मेरे निराकार स्वरूप से व्याप्त है। परन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूँ तथा मेरे द्वारा उत्पन्न वे प्राणी भी मुझमें स्थित नहीं रहते हैं । और मैं उनसे या प्राकृतिक शक्ति से प्रभावित नहीं होता हूँ । मेरे इस ईश्वर-सम्बन्धी योग (सामर्थ्य) को देख ! सम्पूर्ण प्राणियों को उत्पन्न करने वाला अर्थात उनका रचयिता तथा उनका धारण और भरण-पोषण करने वाला मेरा स्वरूप उन प्राणियों में स्थित नहीं है। अर्थात मेरे द्वारा उत्पन्न सारी वस्तुएँ मुझमें स्थित नहीं रहतीं | जरा, मेरे योग-ऐश्र्वर्य को देखो! यद्यपि मैं समस्त जीवों का पालक (भर्ता) हूँ और सर्वत्र व्याप्त हूँ, लेकिन मैं इस विराट अभिव्यक्ति का अंश नहीं हूँ, मैं सृष्टि का कारणस्वरूप हूँ ।]

[भगवान् का कहना है यद्यपि सारी वस्तुएँ उन पर टिकी हैं, किन्तु वे उनसे पृथक् रहते हैं । सारे लोक अन्तरिक्ष में तैर रहें हैं और यह अन्तरिक्ष परमेश्र्वर की शक्ति है । किन्तु वे अन्तरिक्ष से भिन्न हैं, वे पृथक् स्थित हैं । अतः भगवान् कहते हैं “यद्यपि ये सब रचित पदार्थ मेरी अचिन्त्य शक्ति पर टिके हैं, किन्तु भगवान् के रूप में मैं उनसे पृथक् हूँ ।” यह भगवान् का अचिन्त्य ऐश्र्वर्य है । यद्यपि वे समस्त सृष्टि के पालन तथा धारणकर्ता हैं, किन्तु वे इस सृष्टि का स्पर्श नहीं करते। केवल उनकी परम इच्छा से प्रत्येक वस्तु सृजन, धारण, पालन एवं संहार होता है । वे भौतिक जगत् से भिन्न हैं तो भी प्रत्येक वस्तु उन्हीं पर आश्रित है ।]

 

यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्‌ ।

तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥9.6॥

 

यथा-जैसे; आकाशस्थितः-आकाश में स्थित; नित्यम्-सदैव; वायुः-हवा; सर्वत्र-ग:-सभी जगह प्रवाहित होने वाली; महान-शक्तिशाली; तथा-उसी प्रकार; सर्वाणिभूतानि-सारे प्राणी; मत्स्थानि–मुझमें स्थित; इति–इस प्रकार; उपधारय-जानो।

 

जिस प्रकार सर्वत्र प्रवाहित होने वाली प्रबल वायु सदा आकाश में ही स्थित रहती है, वैसे ही मेरे संकल्प द्वारा उत्पन्न होने वाले समस्त प्राणी या जीव मुझमें स्थित रहते हैं, ऐसा जानो ॥9.6॥

 

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृति यान्ति मामिकाम् ।

कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् ॥9.7॥

 

यान्ति–विलीन होना; मामिकाम्-मेरी; कल्पक्षये-कल्प के अन्त में; पुनः फिर से; तानि-उनमें; कल्पआदो-कल्प के प्रारम्भ में; विसृजामि–व्यक्त करता हूँ; अहम्-मैं। 

 

हे कुन्तीपुत्र ! एक कल्प का अन्त होने पर सब भूत अर्थात समस्त प्राणी या जीव मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात्‌ प्रकृति में लीन हो जाते हैं और अन्य कल्प के आरम्भ होने पर मैं उन्हें अपनी शक्ति से फिर रचता हूँ अर्थात पुनः उत्पन्न करता हूँ ॥9.7॥

 

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः ।

भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥9.8॥

 

प्रकृतिम्-भौतिक शक्ति; स्वाम्-मेरी निजी; अवष्टभ्य–प्रवेश करके; विसृजामि-उत्पन्न करता हूँ; पुनः पुन:-बारम्बार; भूतग्रमम्-असंख्य जीवन रूपों को; इमम्-इन; कृत्स्नम्-सबकोः; अवशम्-नियंत्रण से परे; प्रकृतेः-प्रकृति के; वशात्-बल में।

 

मैं अपनी अविद्यारूप प्रकृति को वश में कर के या उसमें प्रवेश कर के इस संपूर्ण प्राणी समुदाय को जो कि प्रकृति के वश में होने से परतंत्र और स्वभाव वश अविद्या आदि दोषों के अधीन होता है , प्रत्येक कल्प के आरम्भ होने पर बार-बार उनके कर्मों के अनुसार रचता हूँ॥9.8॥

[सम्पूर्ण विराट जगत ईश्वर के अधीन है । यह उनकी ही इच्छा से बारम्बार स्वतः प्रकट होता रहता है और उनकी ही इच्छा से अन्त में विनष्ट हो जाता है । यह भौतिक जगत् भगवान् की अपरा शक्ति की अभिव्यक्ति है । सृष्टि के समय यह शक्ति महत्तत्त्व के रूप में प्रकट होती है। जिसमें भगवान् अपने प्रथम पुरुष अवतार, महाविष्णु, के रूप में प्रवेश कर जाते हैं । वे कारणार्णव में शयन करते रहते हैं और अपने श्र्वास से असंख्य ब्रह्माण्ड निकालते हैं और इस ब्रह्माण्डों में से हर एक में वे गर्भोदकशायी विष्णु के रूप में प्रवेश करते हैं । इस प्रकार प्रत्येक ब्रह्माण्ड की सृष्टि होती है । वे इससे भी आगे अपने आपको क्षीरोदकशायी विष्णु के रूप में प्रकट करते हैं और विष्णु प्रत्येक वस्तु में, यहाँ तक कि प्रत्येक अणु में प्रवेश कर जाते है । भगवान् प्रत्येक वस्तु में प्रवेश करते हैं । जहाँ तक जीवात्माओं का सम्बन्ध है, वे इस भौतिक प्रकृति में गर्भस्थ किये जाते हैं और वे अपने-अपने पूर्व कर्मों के अनुसार विभिन्न योनियाँ ग्रहण करते हैं । इस प्रकार इस भौतिक जगत् के कार्यकलाप प्रारम्भ होते हैं । विभिन्न जीव-योनियों के कार्यकलाप सृष्टि के समय से ही प्रारम्भ हो जाते हैं । ऐसा नहीं है कि ये योनियाँ क्रमशः विकसित होती हैं । सारी की सारी योनियाँ ब्रह्माण्ड की सृष्टि के साथ ही उत्पन्न होती हैं । मनुष्य, पशु, पक्षी – ये सभी एकसाथ उत्पन्न होते हैं, क्योंकि पूर्व प्रलय के समय जीवों की जो-जो इच्छाएँ थीं वे पुनः प्रकट होती हैं । पूर्व सृष्टि में वे जिस-जिस अवस्था में थे, वे उस-उस अवस्था में पुनः प्रकट हो जाते हैं और यह सब भगवान् की इच्छा से ही सम्पन्न होता है । यही भगवान् की अचिन्त्य शक्ति है । विभिन्न योनियों को उत्पन्न करने के बाद भगवान् का उनसे कोई नाता नहीं रह जाता । यह सृष्टि विभिन्न जीवों की रुचियों को पूरा करने के उद्देश्य से की जाती है । अतः भगवान् इसमें किसी तरह से बद्ध नहीं होते हैं ।]

 

न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।

उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥9.9॥

 

न-कोई नहीं; च-भी; माम्-मुझको ; तानि–वे; कर्माणि-कर्म; निबधनन्ति–बाँधते हैं; धनञ्जय-धन और वैभव का स्वामी, अर्जुन; उदासीनवत्-तटस्थ रूप से; आसीनम् – स्थित हुआ; असक्तम्-आसक्ति रहित; तेषु-उन; कर्मसु- कर्मों में।

 

हे धनञ्जय ! उन (सृष्टि-रचना आदि) भौतिक कर्मों में आसक्ति रहित , विरक्त और उदासीन के समान स्थित मुझ परमात्मा को वे कर्म नहीं बाँधते। अर्थात ये सारे कर्म मुझे नहीं बाँध पाते हैं और मैं उदासीन की भाँति इन सारे भौतिक कर्मों से सदैव विरक्त रहता हूँ ॥9.9॥

 

[भगवान कहते हैं कि वे उन कर्मों में उदासीन की भाँति स्थित रहते हैं तथा उन कर्मों में फल सम्बन्धी आसक्ति से और कर्तापन अर्थात ” मैं कर्ता हूँ ” इस अभिमानसे भी रहित हैं । इस कारण वे कर्म भगवान को नहीं बाँधते । इससे यह अभिप्राय है कि कर्तापन के अभिमान का अभाव और फल सम्बन्धी आसक्ति का अभाव दूसरों को भी बन्धनरहित कर देनेवाला है। इसके सिवा अन्य किसी प्रकार से किये हुए कर्मों द्वारा अर्थात कर्मों में लिप्त होकर , कर्तापन के भाव से किये हुए कर्मो द्वारा और फल प्राप्ति कि इच्छा से किये हुए कर्मों द्वारा मूर्ख लोग रेशम के कीड़े की भाँति बन्धन में पड़ते हैं।]

 

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् ।

हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥10॥

 

मया-मेरे द्वारा; अध्यक्षेण- अध्यक्षता में ; प्रकृति:-प्राकृत शक्ति; सूयते-प्रकट होती है; स-दोनों; चरअचरम्-व्यक्त और अव्यक्त; हेतुना–कारण; अनेन-इस; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; जगत्-भौतिक जगत; विपरिवर्तते-परिवर्तनशील।

 

हे कुन्ती पुत्र! यह प्रकृति या प्राकृत शक्ति मेरी आज्ञा से और मेरी अध्यक्षता में सम्पूर्ण चराचर जगत अर्थात चर और अचर प्राणियों को उत्पन्न करती है। इसी कारण इस भौतिक जगत में विविध परिवर्तन होते रहते हैं और इसी कारण यह संसार चक्र घूमता रहता है ॥9.10॥

 

[यह भौतिक प्रकृति भगवान् कि शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में काम करती है जिससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं। इसके शासन में यह जगत् बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है । सबका अध्यक्षरूप चैतन्य मात्र एक देव वास्तव में समस्त भोगों के सम्बन्ध से रहित है । उसके सिवा अन्य चेतन न होने के कारण दूसरे भोक्ता का अभाव है। सब ओर से द्रष्टा मात्र ही जिसका स्वरूप है ऐसे निर्विकार स्वरूप अधिष्ठाता प्रभु से प्रेरित होकर अविद्यारूप उनकी त्रिगुणमयी माया या भौतिक प्रकृति समस्त चराचर जगत को उत्पन्न किया करती है। समस्त भूतों में अदृश्य भाव से रहने वाला एक ही देव है जो सर्वव्यापी, सम्पूर्ण भूतों का अन्तरात्मा , समस्त कर्मों का स्वामी,  समस्त जीवों का आधार, साक्षी, चेतन, शुद्ध और निर्गुण है। भगवान ही इस प्रकृति के अध्यक्ष हैं इसीलिये चराचर सहित साकार निराकार रूप समस्त जगत् सब अवस्थाओं में परिवर्तित होता रहता है। जो इस जगत का अध्यक्ष साक्षी चेतन है वह परम हृदयाकाश में स्थित है । यद्यपि परमेश्र्वर इस जगत् के समस्त कार्यों से पृथक् रहते हैं, किन्तु इसके परम अध्यक्ष या निर्देशक वही बने रहते हैं । परमेश्र्वर परम इच्छामय हैं और इस भौतिक जगत् के आधार हैं, किन्तु इसकी सभी व्यवस्था प्रकृति द्वारा की जाती हैं। परमेश्र्वर अपनी दृष्टि मात्र से ही प्रकति के गर्भ में जीवों को प्रविष्ट करते हैं और वे अपनी अन्तिम इच्छाओं तथा कर्मों के अनुसार विभिन्न रूपों तथा योनियों में प्रकट होते हैं । अतः भगवान् इस जगत् से प्रत्यक्ष रूप में आसक्त नहीं होते । वे प्रकृति पर दृष्टिपात करते हैं, और प्रकृति क्रियाशील हो उठती है और तुरन्त ही सारी वस्तुएँ उत्पन्न हो जाती हैं । चूँकि वे प्रकृति पर दृष्टिपात करते हैं, इसलिए परमेश्र्वर की ओर से निःसन्देह क्रिया होती है, किन्तु भौतिक जगत् के प्राकट्य से उन्हें कुछ लेना-देना नहीं रहता । जब किसी व्यक्ति के समक्ष फूल होता है तो उसे उसकी सुगंध मिलती रहती है, किन्तु फूल और सुगंध एक दूसरे से अलग रहते हैं । ऐसा ही सम्बन्ध भौतिक जगत् तथा भगवान् के बीच में भी है । वस्तुतः भगवान् को इस जगत् से कोई प्रयोजन नहीं रहता परन्तु वे ही इसे अपनी दृष्टिपात से उत्पन्न और  व्यवस्थित करते हैं और फिर भी इसके समस्त कार्यों से पृथक् रहते हैं। परमेश्र्वर की अध्यक्षता के बिना प्रकृति कुछ भी नहीं कर सकती।] 

 

भगवान का तिरस्कार करने वाले आसुरी प्रकृति वालों की निंदा और देवी प्रकृति वालों के भगवद् भजन का प्रकार

 

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्‌।

परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्‌ ॥9.11॥

 

अवजानन्ति-उपेक्षा करते हैं; माम्-मुझको; मूढाः-अल्प ज्ञानी; मानुषीम्-मनुष्य रूप में; तनुम्–शरीर; आश्रितम्-मानते हुए; परम्-दिव्य; भावम्-व्यक्तित्व को; अजानन्तः-न जानते हुए; मम–मेरा; भूत-प्रत्येक जीव का; महाईश्वरम्-परमेश्वर।।

 

मेरे परमभाव को न जानने वाले मूढ़ लोग मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझ संपूर्ण भूतों के महान्‌ ईश्वर को तुच्छ समझते हैं अर्थात्‌ अपनी योग माया से संसार के उद्धार के लिए मनुष्य रूप में विचरते हुए मुझ परमेश्वर को साधारण मनुष्य मान कर मेरा अनादर करते हैं॥9.11॥

[यद्यपि परमात्मा नित्य शुद्ध, मुक्त स्वभाव तथा सभी प्राणियों के आत्मा हैं परन्तु जब वे मनुष्य रूप में अवतार लेते हैं तो मूढ़ और अविवेकी लोग उनके ईश्वर रूप परम दिव्य परमात्म तत्व को न पहचान कर उनका उपहास करते हैं और मनुष्य रूप से लीला करते हुए  परमात्मा की अवज्ञा करते हैं। इस जगत् में भगवान् का अवतरण उनकी अन्तरंगा शक्ति का प्राकट्य है | वे भौतिक शक्ति (माया) के स्वामी हैं | यद्यपि भौतिक शक्ति अत्यन्त प्रबल है, किन्तु वह उनके वश में रहती है और जो भी उनकी शरण ग्रहण कर लेता है, वह इस माया के वश से बाहर निकल आता है ]

 

मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः।

राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ॥9.12॥

 

मोघआशा:-निरर्थक आशा; मोघकर्माण:-निष्फल कर्म; मोघ-ज्ञानाः-व्यर्थ ज्ञान; विचेतसः-मोहग्रस्त; राक्षसीम्-आसुरी; आसुरीम् नास्तिक; च-तथा; निश्चय-ही; प्रकृतिम्-प्राकृत शक्ति को; मोहिनीम्-मोहने वाली; श्रिताः-शरण ग्रहण करना।

 

प्राकृत शक्ति से मोहित होने के कारण ऐसे लोग आसुरी और नास्तिक विचारों को ग्रहण करते हैं। इस मोहित अवस्था में उनके आत्मकल्याण की आशा निरर्थक हो जाती है और उनके कर्मफल व्यर्थ हो जाते हैं और उनके ज्ञान की प्रकृति निष्फल हो जाती है। अर्थात वे व्यर्थ आशा, व्यर्थ कर्म और व्यर्थ ज्ञान वाले विक्षिप्त चित्त अज्ञानीजन राक्षसी, आसुरी और मोहिनी प्रकृति को ही धारण किए रहते हैं॥9.12॥

 

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।

भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्यम्‌ ॥9.13॥

 

महाआत्मनः-महान जीवात्माएँ तु-लेकिन; माम्-मुझको; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; दैवीम्-प्रकृतिम्-दिव्य शक्ति; आश्रिताः-शरणग्रहण करना; भजन्ति-भक्ति में लीन; अनन्यमनसः-अविचलित मन से; ज्ञात्वा-जानकर; भूत-समस्त सृष्टि; आदिम्-उदगम; अव्ययम्-अविनाशी।

 

परंतु हे कुन्तीपुत्र! दैवी प्रकृति के आश्रित महात्माजन मुझको सब भूतों का सनातन कारण और नाशरहित अक्षरस्वरूप जानकर अनन्य मन से युक्त होकर निरंतर भजते हैं अर्थात महान आत्माएँ जो मेरी दिव्य शक्ति का आश्रय लेती हैं, वे मुझे समस्त सृष्टि के उद्गम के रूप में जान लेती हैं और मुझे समस्त भूतों का आदिकारण और अव्ययस्वरूप जानकर वे अपने मन को केवल मुझमें स्थिर कर मेरी अनन्य भक्ति करती हैं9.13॥

 

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः ।

नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥9.14॥

 

सततम् – सदैव; कीर्तयन्तः-दिव्य महिमा का गान; माम्-मेरी; यतन्तः-प्रयास करते हुए; च-भी; दृढव्रताः-दृढ़ संकल्प से; नमस्यन्तः-नतमस्तक होकर; च-तथा; माम्-मुझको; भक्त्या-भक्ति में; नित्ययुक्ताः -निरंतर मेरे ध्यान में युक्त होकर; उपासते-पूजा करते हैं।

 

ये महात्मा मेरी दिव्य महिमा का सदैव कीर्तन करते हुए दृढ़ निश्चय के साथ विनय पूर्वक मेरे समक्ष नतमस्तक होकर निरन्तर प्रेम और  भक्ति के साथ मेरी आराधना करते हैं। अर्थात वे दृढ़ निश्चय वाले भक्तजन निरंतर मेरे नाम और गुणों का कीर्तन करते हुए तथा मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करते हुए और मुझको बार-बार प्रणाम करते हुए सदा मेरे ध्यान में युक्त होकर अनन्य प्रेम से मेरी उपासना करते हैं॥9.14॥

 

ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ते यजन्तो मामुपासते।

एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्॥9.15॥

 

ज्ञानयज्ञेन–ज्ञान पोषित करने के लिए यज्ञ करना; च-और; अपि-भी; अन्ये-अन्य लोग; यजन्तः-यज्ञ करते हुए; माम्-मुझको; उपासते-पूजते हैं; एकत्वेन-एकान्त भाव से; पृथक्त्वेन–अलग से; बहुधा-अनेक प्रकार से; विश्वतःमुखम् – ब्रह्माण्डीय रूप में।

 

दूसरे ज्ञानयोगी मुझ निर्गुण-निराकार ब्रह्म का ज्ञानयज्ञ द्वारा अभिन्न या एकीभाव ( अभेद भाव ) से पूजन करते हुए मेरी उपासना करते हैं और दूसरे मनुष्य दूसरे कई साधक अपने को पृथक् मानकर चारों तरफ मुख वाले मेरे विराट रुप की अर्थात् संसार को मेरा विराट रुप मानकर (सेव्य-सेवक भाव से) मेरी अनेक प्रकार से उपासना करते हैं। अर्थात कुछ लोग जो ज्ञान के संवर्धन हेतु यज्ञ करने में लगे रहते हैं, वे विविध प्रकार से मेरी आराधना में लीन रहते हैं। कुछ अन्य लोग मुझे अभिन्न रूप में देखते हैं जो कि उनसे भिन्न नहीं हैं जबकि दूसरे मुझे अपने से भिन्न रूप में देखते हैं। कुछ लोग मेरे ब्रह्माण्डीय रूप की अनन्त अभिव्यक्तियों में मेरी पूजा करते हैं।।9.15।।

 

सर्वात्म रूप से प्रभाव सहित भगवान के स्वरूप का वर्णन

 

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्‌ ।

मंत्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्‌ ॥9.16॥

 

अहम्-मैं; क्रतुः-वैदिक कर्मकाण्ड; अहम्-मैं; यज्ञः-समस्त यज्ञ; स्वधा-तर्पण; अहम्–मैं; औषधाम्-जड़ी-बूटी; मन्त्र-वैदिक मंत्र; अहम्-मैं; एव–निश्चय ही; आश्यम्-घी; अहम्-मैं; 

 

मैं ही कर्मकाण्ड, मैं ही यज्ञ, पितरों को दिया जाने वाला अर्पण, औषधि, दिव्य ध्वनि (मन्त्र), घी, अग्नि तथा आहुति हूँ 9.16॥

 

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः ।

वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च ॥9.17॥

 

पिता-पिता; अहम्-मैं; अस्य-इसका; जगतः-ब्रह्माण्ड; माता-माता; धाता-रक्षक; पितामहः-दादा; वेद्यम्-ज्ञान का लक्ष्य; पवित्रम्-शुद्ध करने वाला; ओङ्कारः-पवित्र मंत्र ॐ ; ऋक्-ऋग्वेद ; साम–सामवेद ; यजुः-यजुर्वेद ; एव-निश्चय ही; च-तथा।

 

इस संपूर्ण जगत्‌ का धाता अर्थात्‌ धारण करने वाला एवं कर्मों के फल को देने वाला, पिता, माता, पितामह, जानने योग्य पवित्र ओंकार तथा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ॥9.17॥

 

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्‌ ।

प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्‌॥9.18॥

 

गति:-परम लक्ष्य; भर्ता-पालक; प्रभुः-स्वामी; साक्षी-गवाह; निवासः-धाम; शरणम्-शरण; सुहृत्-परम मित्र; प्रभवः-मूल; प्रलयः-संहार; स्थानम्-भण्डारग्रह; निधानम्-आश्रय, स्थल; बीजम्-बीज, कारण-कारण; अव्ययम्-अविनाशी।

 

प्राप्त होने योग्य परम धाम, भरण-पोषण करने वाला, सबका स्वामी, शुभाशुभ का देखने वाला, सबका वास स्थान, शरण लेने योग्य, प्रत्युपकार न चाहकर हित करने वाला अत्यंत प्रिय मित्र , सबकी उत्पत्ति-प्रलय का हेतु, स्थिति का आधार, निधान ( प्रलयकाल में संपूर्ण भूत सूक्ष्म रूप से जिसमें लय होते हैं ) और अविनाशी कारण भी मैं ही हूँ अर्थात मैं सभी प्राणियों का परम लक्ष्य हूँ और मैं ही सबका निर्वाहक, स्वामी, धाम, आश्रयऔर मित्र हूँ। मैं ही सृष्टि का आदि, अन्त और मध्य (विश्रामस्थल) और मैं ही भण्डारग्रह और अविनाशी बीज हूँ॥9.18॥

 

तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च।

अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ॥9.19॥

 

तपामि-गर्मी पहुँचाता हूँ; अहम् – मैं; वर्षम्-वर्षा; निगृह्णामि-रोकना; उत्सृजामि-लाता हूँ; च-और; अमृतम्-अमरत्व; च-और; एव-निश्चय ही; मृत्युः-मृत्यु; च-और; सत्-शाश्वत आत्मा; असत्-अस्थायी पदार्थ; च-तथा; अहम्-मैं; अर्जुन-अर्जुन।

 

हे अर्जुन! मैं ही सूर्य को गर्मी प्रदान करता हूँ तथा वर्षा को रोकता और लाता हूँ। मैं अमरत्व तत्त्व ( अमृत ) और साक्षात् मृत्यु भी हूँ। मैं ही आत्मा और सत तथा असत पदार्थ भी मैं ही हूँ अर्थात (संसारके हितके लिये) मैं ही सूर्य रूप से तपता हूँ, जल को ग्रहण करता हूँ और फिर उस जल को वर्षा रूप से बरसा देता हूँ। देवों का अमृत और मर्त्यलोक में बसने वालों की मृत्यु मैं ही हूँ9.19॥

 

सकाम और निष्काम उपासना का फल

 

त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापायज्ञैरिष्ट्‍वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।

ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्‌ ॥9.20॥

 

त्रैविद्या:-वैदिक कर्म काण्ड की विधियाँ; माम्-मुझको; सोमपा:-सोम रस का सेवन करने वाले; पूत-पवित्र; पापा:-पापों का; यज्ञैः-यज्ञों द्वारा; इष्ट्वा –आराधना करके; स्व:गतिम्-स्वर्ग लोक जाने के लिए; प्रार्थयन्ते-प्रार्थना करते हैं; ते–वे; पुण्यम्-पवित्र; सुरइन्द्र–इन्द्र के; लोकम्-लोक को; अश्नन्ति–भोग करते हैं; दिव्यान्–दैवी; दिवि-स्वर्ग में; देवभोगान्–देवताओं के सुख को।

 

वे जिनकी रुचि वेदों में वर्णित सकाम कर्मकाण्डों में होती है, वे यज्ञों के कर्मकाण्ड द्वारा मेरी आराधना करते हैं। वे यज्ञों के अवशेष सोमरस का सेवन कर पापों से शुद्ध होकर स्वर्ग जाने की इच्छा करते हैं। अपने पुण्य कर्मों के प्रभाव से वे स्वर्ग के राजा इन्द्र के लोक में जाते हैं और स्वर्ग के देवताओं का सुख ऐश्वर्य पाते हैं अर्थात तीनों वेदों में विधान किए हुए सकाम कर्मों को करने वाले, सोम रस को पीने वाले, पापरहित पुरुष मुझको यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग की प्राप्ति चाहते हैं, वे पुरुष अपने पुण्यों के फलरूप स्वर्गलोक को प्राप्त होकर स्वर्ग में दिव्य देवताओं के भोगों को भोगते हैं॥9.20॥

 

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालंक्षीणे पुण्य मर्त्यलोकं विशन्ति।

एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते ॥9.21॥

 

त- वे; तम्-उसको; भुक्त्वा–भोग करके; स्वर्गलोकम् – स्वर्ग; विशालम्-गहन; क्षणे-समाप्त हो जाने पर; पुण्ये-पुण्य और पाप कर्म; मर्त्यलोकम्-पृथ्वी लोक में; विशन्ति-लौट आते हैं; एवम्-इस प्रकार; त्रयीधर्म-वेदों के कर्मकाण्ड संबंधी भाग; अनुप्रपन्नाः-पालन करना; गतआगतम्-बार बार आवागमन; कामकामाः-इन्द्रिय भोग के विषय; लभन्ते–प्राप्त करते हैं।

 

वे उस विशाल स्वर्ग लोक के सुखों को भोगकर पुण्य कर्मों के फल क्षीण होने पर मृत्यु लोक ( पृथ्वी लोक ) को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार स्वर्ग के साधनरूप तीनों वेदों में कहे हुए सकाम कर्म का आश्रय लेने वाले अर्थात जो अपने इच्छित पदार्थ प्राप्त करने हेतु वैदिक कर्मकाण्डों का पालन करते हैं और भोगों की कामना वाले जीव बार-बार संसार में आवागमन को प्राप्त होते हैं। ऐसे जीव पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग में जाते हैं और पुण्य क्षीण होने पर मृत्यु लोक में लौट कर आते हैं॥9.21॥

 

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्‌ ॥9.22॥

 

अनन्या:-सदैव; चिन्तयन्तः-सोचते हुए; माम्–मुझको; ये-जो; जनाः-व्यक्ति; पर्युपासते-पूजा करते हैं; तेषाम्-उनके; नित्य-सदा; अभियुक्तानाम्-सदैव भक्ति में तल्लीन मनुष्यों की; योग-आध्यात्मिक सम्पत्ति की आपूर्ति; क्षेम्-आध्यात्मिक संपदा की सुरक्षा; वहामि-वहन करता हूँ; अहम्-मैं।

 

जो अनन्य प्रेमी भक्त जन मुझ परमेश्वर को निरंतर चिंतन करते हुए निष्कामभाव से भजते हैं, उन नित्य-निरंतर मेरा चिंतन करने वाले पुरुषों का योगक्षेम (भगवत्‌स्वरूप की प्राप्ति का नाम ‘योग’ है और भगवत्‌प्राप्ति के निमित्त किए हुए साधन की रक्षा का नाम ‘क्षेम’ है) मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ अर्थात जो लोग सदैव मेरे बारे में सोचते हैं और मेरी अनन्य भक्ति में लीन रहते हैं एवं जिनका मन सदैव मुझमें तल्लीन रहता है, उनकी जो आवश्यकताएँ होती हैं उन्हें मैं पूरा करता हूँ और जो कुछ उनके स्वामित्व में होता है, उसकी रक्षा करता हूँ9.22॥

 

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।

तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्‌ ॥9.23॥

 

ये-जो; अपि-यद्यपि; अन्य-दूसरे; देवता-देवताओं के; भक्ताः-भक्त; यजन्ते-पूजते हैं; श्रद्धयाअन्विताः- श्रद्धा युक्त; ते–वे; अपि-भी; माम् -मुझको; एव-केवल; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; यजन्ति-पूजा करते हैं; अविधि-पूर्वकम् त्रुटिपूर्ण ढंग से।

 

हे अर्जुन! यद्यपि जो सकाम भक्त श्रद्धापूर्वक दूसरे देवताओं को पूजते हैं, वे भी मुझको ही पूजते हैं, किंतु उनका वह पूजन अविधिपूर्वक अर्थात्‌ अज्ञानपूर्वक है अर्थात वे यह सब अनुचित या त्रुटिपूर्ण ढंग से करते हैं॥9.23॥

 

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।

न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥9.24॥

 

अहम्-मैं; हि-वास्तव में; सर्व-सब का; यज्ञानाम्-यज्ञ; भोक्ता–भोग करने वाला; च-और; प्रभुः-भगवान; एव-भी; च-तथा; न-नहीं; तु-लेकिन; माम्-मुझको; अभिजानन्ति–अनुभव करना; तत्त्वेन-दिव्य प्रकृति; अतः-इसलिए; च्यवन्ति-पुनर्जन्म लेना (संसार में भटकना); ते-वे।

 

क्योंकि संपूर्ण यज्ञों का एकमात्र भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूँ, परंतु वे मुझ परमेश्वर को तत्त्व से नहीं जानते अर्थात मेरी दिव्य प्रकृति को पहचान नहीं पाते । इसी लिए वे गिरते हैं अर्थात्‌ पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं॥9.24॥

 

यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः ।

भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्‌ ॥9.25॥

 

यान्ति–जाते हैं; देवव्रताः-देवताओं की पूजा करने वाले; देवान्–देवताओं के बीच; पितृन्-पित्तरों के बीच; यान्ति–जाते हैं; पितृव्रता:-पित्तरों की पूजा करने वाले; भूतानि-भूतप्रेतों के बीच; यान्ति–जाते हैं; भूतइज्या:-भूतप्रेतों की पूजा करने वाले; यान्ति-जाते हैं; मत्-मेरे; याजिनः-भक्तगण;अपि-लेकिन; माम्-मेरे पास।

 

देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मेरा पूजन करने वाले भक्त मुझको ही प्राप्त होते हैं। इसीलिए मेरे भक्तों का पुनर्जन्म नहीं होता । अर्थात जो देवताओं की पजा करते हैं वे देवताओं के बीच जन्म लेते हैं। जो पित्तरों की पूजा करते हैं वे पितरों की योनियों में जन्म लेते है। भूत-प्रेतों की पूजा करने वाले उन्हीं के बीच जन्म लेते है और केवल मेरे भक्त मेरे धाम में प्रवेश करते हैं9.25॥

 

निष्काम भगवद् भक्ति की महिमा

 

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।

तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥9.26॥

 

पत्रम्-पत्ता; पुष्पम् – पुष्प; फलम् – फल; तोयम्-जल; यः-जो कोई; मे-मुझको; भक्त्या-श्रद्धापूर्वक; प्रयच्छति-अर्पित करता है; तत्-वह; अहम्-मैं; भक्तिउपहृतम्-श्रद्धा भक्ति से अर्पित करना; अश्नामि-स्वीकार करता हूँ। प्रयतआत्मन:-शुद्व मानसिक चेतना के साथ।

 

जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुण रूप से प्रकट होकर प्रेम सहित खाता हूँ अर्थात यदि कोई मुझे श्रद्धा भक्ति के साथ पत्र, पुष्प, फल या जल ही अर्पित करता है तब मैं प्रसन्नतापूर्वक अपने भक्त द्वारा प्रेमपूर्वक और शुद्ध मानसिक चेतना के साथ अर्पित वस्तु को स्वीकार करता हूँ॥9.26॥

 

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्‌ ।

यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्‌ ॥9.27॥

 

यत्-जो कुछ; करोषि-करते हो; यत्-जो भी; अश्नासि-खाते हो; यत्-जो कुछ; जुहोषि-यज्ञ में अर्पित करना; ददासि-उपहार स्वरूप प्रदान करना; यत्-जो; यत्-जो भी; तपस्यसि-तप करते हो; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; तत्-वह सब; कुरूष्व-करो; मत्-मुझको; अर्पणम -अर्पण के रूप में।

 

हे कुन्ती पुत्र! तुम जो भी करते हो, जो भी खाते हो, पवित्र यज्ञाग्नि में जो आहुति डालते हो, जो भी दान देते हो, जो भी तपस्या करते हो, यह सब मुझे अर्पित करते हुए करो॥9.27॥

 

शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्य से कर्मबंधनैः ।

सन्न्यासयोगमुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥9.28॥

 

शुभअशुभफलैः-शुभ और अशुभ परिणाम; एवम्-इस प्रकार; मोक्ष्यसे-तुम मुक्त हो जाओगे; कर्म-कर्म; बन्धनैः-बन्धन से; संन्यासयोग-स्वार्थ के त्याग से; युक्तआत्मा-मन को मुझमें अनुरक्त करके; विमुक्तः-मुक्त होना; माम्-मुझे ; उपैष्यसि–प्राप्त होगे।

 

इस प्रकार, समस्त कर्म मुझ भगवान को अर्पण कर के – ऐसे संन्यासयोग युक्त चित्त वाले तुम शुभ और अशुभ फलों के कर्मबंधन से मुक्त हो जाओगे और उनसे मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त होगे अर्थात वैराग्य द्वारा मन को मुझ में अनुरक्त कर तुम मुक्त होकर मेरे पास आ पाओगे॥9.28॥

 

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।

ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्‌ ॥9.29॥

 

समः-समभाव से व्यवस्थित करना; अहम्-मैं; सर्वभूतेषु-सभी जीवों को; न-कोई नहीं; मे–मुझको; द्वेष्यः-द्वेष; अस्ति–हे; न-न तो; प्रियः-प्रिय; ये-जो; भजन्ति–प्रेममयी भक्ति; तु-लेकिन; माम्-मुझको; भक्त्या-भक्ति से; मयि–मुझमें; ते-ऐसा व्यक्ति; तेषु-उनमें; च-भी; अपि-निश्चय ही; अहम्-मैं।

 

मैं सब भूतों में सम भाव से व्यापक हूँ अर्थात मैं समभाव से सभी जीवों के साथ व्यवहार करता हूँ । न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है अर्थात न तो मैं किसी के साथ द्वेष करता हूँ और न ही पक्षपात करता हूँ । परंतु जो भक्त मुझको प्रेम से भजते हैं अर्थात जो भक्त मेरी प्रेममयी भक्ति करते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट हूँ अर्थात मैं उनके हृदय में और वे मेरे हृदय में निवास करते हैं ॥9.29॥

(जैसे सूक्ष्म रूप से सब जगह व्यापक हुआ भी अग्नि साधनों द्वारा प्रकट करने से ही प्रत्यक्ष होता है, वैसे ही सब जगह स्थित हुआ भी परमेश्वर भक्ति से भजने वाले के ही अंतःकरण में प्रत्यक्ष रूप से प्रकट होता है)

 

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्‌ ।

साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥9.30॥

 

अपि-भी; चेत् – यदि; सु-दुराचारः-अत्यन्त घृणित कर्म करने वाला पापी; भजते-सेवा करना ; माम्-मेरी; अनन्यभाक्-अनन्य भक्ति पूर्वक; साधु:-साधु पुरुष; एव–निश्चय ही; स:-वह; मन्तव्यः-संकल्पः सम्यक्-पूर्णतया; व्यवसित-संकल्प युक्त; हि-निश्चय ही; सः-वह।

 

यदि महापापी भी मेरी अनन्य भक्ति के साथ मेरी उपासना में लीन रहते हैं तब उन्हें साधु मानना चाहिए क्योंकि वे अपने संकल्प में दृढ़ रहते हैं अर्थात यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है। अर्थात्‌ उसने भली भाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है॥9.30॥

 

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति ।

कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥9.31॥

 

क्षिप्रम्-शीघ्रः भवति–बन जाता है; धर्मआत्मा-धर्म पर चलने वाला; शश्वत् शान्तिम्-चिरस्थायी शान्ति; निगच्छति–प्राप्त करना; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन ; प्रतिजानीहि-निश्चयपूर्वक घोषित कर दो; न-कभी नहीं; मे-मेरा; भक्त:-भक्त; प्रणश्यति–विनाश।

 

हे कुन्ती पुत्र! वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहने वाली चिरस्थायी परम शान्ति को प्राप्त होता है। तुम निश्चयपूर्वक निडर हो कर यह घोषणा कर दो और इस तथ्य को सत्य जानो कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता अर्थात मेरे भक्त का कभी पतन नहीं होता ॥9.31॥

 

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु पापयोनयः ।

स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्‌ ॥9.32॥

 

माम्-मेरी; हि-निःसंदेह; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुनः व्यपाश्रित्य-शरण ग्रहण करके; ये-जो; अपि-भी; स्युः-हों; पापयोनयः-निम्नयोनि में उत्पन्न; वैश्या:-व्यावसायिक लोग; तथा-भी; शूद्राः-शारीरिक श्रम करने वाले; ते-अपि-वे भी; यान्ति–जाते हैं; परम्-परम; गतिम्-गंतव्य।

 

हे अर्जुन! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि चाण्डाल आदि जो कोई भी हों, वे भी मेरे शरण होकर परमगति को ही प्राप्त होते हैं अर्थात वे सब जो मेरी शरण ग्रहण करते हैं भले ही वे जिस कुल, लिंग, जाति के हों और जो समाज से तिरस्कृत ही क्यों न हों, वे परम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं॥9.32॥

 

किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा ।

अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्‌ ॥9.33॥

 

किम्-क्या, कितनाः पुनः-फिर; ब्राह्यणाः-ज्ञानी; पुण्या:-धर्मात्मा; भक्ताः-भक्तगण; राजऋषयः-राजर्षि; तथा-भी; अनित्यम्-अस्थायी; असुखम्-दुखमय; लोकम्-संसार को; इमम्-इस; प्राप्य–प्राप्त करके; भजस्व-अनन्य भक्ति में लीन; माम्-मेरी।

 

फिर पुण्य कर्म करने वाले राजर्षियों और धर्मात्मा ज्ञानियों के संबंध में तो कहना ही क्या है जो मेरी शरण होकर और मेरी भक्ति कर परम गति को प्राप्त होते हैं। इसलिए तुम इस अनित्य, क्षणभंगुर और सुख रहित संसार में आकर अर्थात इस मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर निरंतर मेरा ही भजन करो , मेरी भक्ति में लीन रहो।।9.33।।

 

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।

मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण: ॥9.34॥

 

मत् मना:-सदैव मेरा चिन्तन करने वाला; भव-हो; मत्-मेरा; भक्त:-भक्त; मत्-मेरा; याजी-उपासक; माम्-मुझको; नमस्कुरू-नमस्कार करो; माम्-मुझको; एव–निःसंदेह; एष्यासि-पाओगे; युक्त्वा-तल्लीन होकर; एवम्-इस प्रकार; आत्मानम्-आत्मा को; मत् परायणः-मेरी भक्ति में अनुरक्त।

 

सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो, मुझमें मन लगाओ, मुझे प्रणाम करो। इस प्रकार अपने मन और शरीर को मुझे समर्पित करने से और अपनी आत्मा को मुझमें नियुक्त करके मेरे परायण हो कर तुम निश्चित रूप से मुझे ही प्राप्त करोगे॥9.34॥

 

 

 

श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम नवमोऽध्यायः ॥9॥

 

 

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