सांख्ययोग ~ अध्याय दो
11-30 गीताशास्त्रका अवतरण
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्॥2.12॥
न-नहीं; तु-लेकिन; एव-निश्चय ही; अहम्-मे; जातु-किसी समय में; न-नहीं; आसम्-था; न-नहीं; त्वम्-तुम; न-नहीं; इमे-ये सब; जन-अधिपा:-राजागण; न – कभी नहीं; च-भी; एव-वास्तव में; न-नहीं; भविष्यामः-रहेंगे; सर्वेवयम्-हम सब; अतः-इसके; परम्-आगे।
न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे॥२.12॥
(मात्र संसार में दो ही वस्तुएँ हैं शरीरी (सत्) और शरीर (असत्)। ये दोनों ही अशोच्य हैं अर्थात् शोक न शरीरी (शरीर में रहने वाले) को लेकर हो सकता है और न शरीर को लेकर ही हो सकता है। कारण कि शरीरी का कभी अभाव होता ही नहीं और शरीर कभी रह सकता ही नहीं। इन दोनों के लिये पूर्वश्लोक में जो ‘अशोच्यान्’ पद आया है उसकी व्याख्या अब शरीरी की नित्यता और शरीर की अनित्यता के रूप में करते हैं। ‘न त्वेहाहं जातु ৷৷. जनाधिपाः’ लोगों की दृष्टि से मैंने जब तक अवतार नहीं लिया था तब तक मैं इस रूप से (कृष्ण-रूप से) सबके सामने प्रकट नहीं था और तेरा जब तक जन्म नहीं हुआ था तब तक तू भी इस रूप से (अर्जुन-रूप से ) सबके सामने प्रकट नहीं था तथा इन राजाओं का भी जब तक जन्म नहीं हुआ था तब तक ये भी इस रूप से (राजा रूप से) सबके सामने प्रकट नहीं थे परन्तु मैं , तू और ये राजा लोग इस रूप से प्रकट न होने पर भी पहले नहीं थे – ऐसी बात नहीं है। यहाँ मैं , तू और ये राजा लोग पहले थे – ऐसा कहने से ही काम चल सकता था पर ऐसा न कहकर मैं , तू और ये राजा लोग पहले नहीं थे – ऐसी बात नहीं – ऐसा कहा गया है। इसका कारण यह है कि पहले नहीं थे – ऐसी बात नहीं – ऐसा कहने से पहले हम सब जरूर थे, यह बात दृढ़ हो जाती है। तात्पर्य यह हुआ कि नित्य-तत्त्व सदा ही नित्य है। इसका कभी अभाव था ही नहीं। ‘जातु’ कहने का तात्पर्य है कि भूत , भविष्य और वर्तमान काल में तथा किसी भी देश ,परिस्थिति , अवस्था , घटना , वस्तु आदि में नित्य-तत्त्व का किञ्चिन्मात्र भी अभाव नहीं हो सकता।यहाँ ‘अहम्’ पद देकर भगवान ने एक विलक्षण बात कही है। आगे चौथे अध्याय के पाँचवें श्लोक में भगवान ने अर्जुन से कहा है कि मेरे और तेरे बहुत से जन्म हुए हैं पर उनको मैं जानता हूँ तू नहीं जानता। इस प्रकार भगवान ने अपना ईश्वरपना प्रकट करके जीवों से अपने को अलग बताया है परन्तु यहाँ भगवान जीवों के साथ अपनी एकता बता रहे हैं। इसका तात्पर्य है कि वहाँ (4। 5 में) भगवान का आशय अपनी महत्ता , विशेषता प्रकट करने में है और यहाँ भगवान का आशय तात्त्विक दृष्टि से नित्य-तत्त्व को जानने में है। ‘न चैव ৷৷. वयमतः परम्’ भविष्य में शरीरों की ये अवस्थाएँ नहीं रहेंगी और एक दिन ये शरीर भी नहीं रहेंगे परन्तु ऐसी अवस्था में भी हम सब नहीं रहेंगे यह बात नहीं है अर्थात् हम सब जरूर रहेंगे। कारण कि नित्यतत्त्व का कभी अभाव था नहीं और होगा भी नहीं। मैं , तू और राजालोग हम सभी पहले नहीं थे – यह बात भी नहीं है और आगे नहीं रहेंगे – यह बात भी नहीं है । इस प्रकार भूत और भविष्य की बात तो भगवान ने कह दी पर वर्तमान की बात भगवान ने नहीं कही। इसका कारण यह है कि शरीरों की दृष्टि से तो हम सब वर्तमान में प्रत्यक्ष ही हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है। इसलिये हम सब अभी नहीं हैं यह बात नहीं है – ऐसा कहने की जरूरत नहीं है। अगर तात्त्विक दृष्टि से देखा जाय तो हम सभी वर्तमान में हैं और ये शरीर प्रतिक्षण बदल रहे हैं – इस तरह शरीरों से अलगाव का अनुभव हमें वर्तमान में ही कर लेना चाहिये। तात्पर्य है कि जैसे भूत और भविष्य में अपनी सत्ता का अभाव नहीं है – ऐसे ही वर्तमान में भी अपनी सत्ता का अभाव नहीं है – इसका अनुभव करना चाहिये। जैसे प्रत्येक प्राणी को नींद खुलने से पहले भी यह अनुभव रहता है कि अभी हम हैं और नींद खुलने पर भी यह अनुभव रहता है कि अभी हम हैं तो नींद की अवस्था में भी हम वैसे के वैसे ही थे। केवल बाह्य जानने की सामग्री का अभाव था – हमारा अभाव नहीं था। ऐसे ही मैं , तू और राजालोग हम सबके शरीर पहले भी नहीं थे और बाद में भी नहीं रहेंगे तथा अभी भी शरीर प्रतिक्षण नाशकी ओर जा रहे हैं परन्तु हमारी सत्ता पहले भी थी , पीछे भी रहेगी और अभी भी वैसी की वैसी ही है। हमारी सत्ता कालातीत तत्त्व है क्योंकि हम उस काल के भी ज्ञाता हैं अर्थात् भूत ,भविष्य और वर्तमान ये तीनों काल हमारे जानने में आते हैं। उस कालातीत तत्त्व को समझाने के लिये ही भगवान ने यह श्लोक कहा है। विशेष बात – मैं , तू और राजालोग पहले नहीं थे – यह बात नहीं और आगे नहीं रहेंगे – यह बात भी नहीं । ऐसा कहने का तात्पर्य है कि जब ये शरीर नहीं थे तब भी हम सब थे और जब ये शरीर नहीं रहेंगे तब भी हम रहेंगे अर्थात् ये सब शरीर तो हैं नाशवान और हम सब हैं अविनाशी। ये शरीर पहले नहीं थे और आगे नहीं रहेंगे – इससे शरीरों की अनित्यता सिद्ध हुई और हम सब पहले थे और आगे रहेंगे – इससे सबके स्वरूप की नित्यता सिद्ध हुई। इन दो बातों से यह एक सिद्धान्त सिद्ध होता है कि जो आदि और अन्त में रहता है वह मध्य में भी रहता है तथा जो आदि और अन्त में नहीं रहता वह मध्य में भी नहीं रहता। जो आदि और अन्त में नहीं रहता वह मध्य में कैसे नहीं रहता ? क्योंकि वह तो हमें दिखता है । इसका उत्तर यह है कि जिस दृष्टि से अर्थात् जिन मन , बुद्धि और इन्द्रियों से दृश्य का अनुभव हो रहा है उन मन- बुद्धि – इन्द्रियों सहित वह दृश्य प्रतिक्षण बदल रहा है। वे एक क्षण भी स्थायी नहीं हैं। ऐसा होने पर भी जब स्वयं दृश्य के साथ तादात्म्य कर लेता है तब वह द्रष्टा अर्थात् देखने वाला बन जाता है। जब देखने के साधन (मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ) और दृश्य (मन-बुद्धि-इन्द्रियों के विषय) ये सभी एक क्षण भी स्थायी नहीं हैं तो देखने वाला स्थायी कैसे सिद्ध होगा ? तात्पर्य है कि देखने वाले की संज्ञा तो दृश्य और दर्शन के सम्बन्ध से ही है । दृश्य और दर्शन से सम्बन्ध न हो तो देखने वाले की कोई संज्ञा नहीं होती बल्कि उसका आधाररूप जो नित्यतत्व है वही रहा जाता है। उस नित्यतत्त्व को हम सबकी उत्पत्ति , स्थिति और प्रलय का आधार और सम्पूर्ण प्रतीतियों का प्रकाशक कह सकते हैं परन्तु ये आधार और प्रकाशक नाम भी आधेय और प्रकाश्य के सम्बन्ध से ही हैं। आधेय और प्रकाश्य के न रहने पर भी उसकी सत्ता ज्यों की त्यों ही है। उस सत्य तत्त्व की तरफ जिसकी दृष्टि है उसको शोक कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता। इसी दृष्टि से मैं , तू और राजालोग स्वरूप से अशोच्य हैं – स्वामी रामसुखदास जी )