The bHagavad Gita chapter 2

 

 

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सांख्ययोग ~ अध्याय दो

11-30 गीताशास्त्रका अवतरण

 

 

Sankhya Yog Chapter 2 Bhagavad Gita

 

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।

तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥2.13॥

 

देहिनः-देहधारी की; अस्मिन्-इसमें; यथा-जैसे; देहै-शरीर में; कौमारम्-बाल्यावस्था; यौवनम्-यौवन; जरा-वृद्धावस्था; तथा -समान रूप से; देह-अन्तर-दूसरा शरीर; प्राप्तिः -प्राप्त होती है; धीर:-बुद्धिमान व्यक्ति; तत्र-इस संबंध मे; न-मुह्यति–मोहित नहीं होते।

 

जैसे देहधारी आत्मा इस शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था और वृद्धावस्था की ओर निरन्तर अग्रसर होती है, वैसे ही मृत्यु के समय आत्मा दूसरे शरीर में चली जाती है। बुद्धिमान मनुष्य ऐसे परिवर्तन से मोहित नहीं होते।।२.13।।

 

‘देहिनोऽस्मिन्यथा देहे (टिप्पणी प0 50) कौमारं यौवनं जरा’ शरीरधारी के इस शरीर में पहले बाल्यावस्था आती है फिर युवावस्था आती है और फिर वृद्धावस्था आती है। तात्पर्य है कि शरीर में कभी एक अवस्था नहीं रहती , उसमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। यहाँ शरीरधारी के इस शरीर में ऐसा कहने से सिद्ध होता है शरीरी अलग है और शरीर अलग है। शरीरी द्रष्टा है और शरीर दृश्य है। अतः शरीर में बालकपन आदि अवस्थाओं का जो परिवर्तन है वह परिवर्तन शरीरी में नहीं है। ‘तथा देहान्तरप्राप्तिः’ जैसे शरीर की कुमार युवा आदि अवस्थाएँ होती हैं । ऐसे ही देहान्तर की अर्थात् दूसरे शरीर की प्राप्ति होती है। जैसे स्थूल शरीर बालक से जवान एवं जवान से बूढ़ा हो जाता है तो इन अवस्थाओं के परिवर्तन को लेकर कोई शोक नहीं होता । ऐसे ही शरीरी एक शरीर से दूसरे शरीर में जाता है तो इस विषय में भी शोक नहीं होना चाहिये। जैसे स्थूल शरीर के रहते-रहते कुमार , युवा आदि अवस्थाएँ होती हैं । ऐसे ही सूक्ष्म और कारणशरीर के रहते-रहते देहान्तर की प्राप्ति होती है अर्थात् जैसे बालकपन , जवानी आदि स्थूलशरीर की अवस्थाएँ हैं – ऐसे देहान्तर की प्राप्ति (मृत्यु के बाद दूसरा शरीर धारण करना ) सूक्ष्म और कारणशरीर की अवस्था है। स्थूलशरीर के रहते-रहते कुमार आदि अवस्थाओं का परिवर्तन होता है , यह तो स्थूल दृष्टि है। सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो अवस्थाओं की तरह स्थूलशरीर में भी परिवर्तन होता रहता है। बाल्यावस्था में जो शरीर था वह युवावस्था में नहीं है। वास्तव में ऐसा कोई भी क्षण नहीं है जिस क्षण में स्थूलशरीर का परिवर्तन न होता हो। ऐसे ही सूक्ष्म और कारणशरीर में भी प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है जो देहान्तर रूप से स्पष्ट देखने में आता है  (टिप्पणी प0 51.1) ।अब विचार यह करना है कि स्थूलशरीर का तो हमें ज्ञान होता है पर सूक्ष्म और कारणशरीर का हमें ज्ञान नहीं होता। अतः जब सूक्ष्म और कारणशरीर का ज्ञान भी नहीं होता तो उनके परिवर्तन का ज्ञान हमें कैसे हो सकता है ? इसका उत्तर है कि जैसे स्थूलशरीर का ज्ञान उसकी अवस्थाओं को लेकर होता है । ऐसे ही सूक्ष्म और कारणशरीर का ज्ञान भी उसकी अवस्थाओं को लेकर होता है। स्थूलशरीर की जाग्रत, सूक्ष्मशरीर की स्वप्न और कारणशरीर की सुषुप्ति अवस्था मानी जाती है। मनुष्य अपनी बाल्यावस्था में अपने को स्वप्न में बालक देखता है , युवावस्था में स्वप्न में युवा देखता है और वृद्धावस्था में स्वप्न में वृद्ध देखता है। इससे सिद्ध हो गया कि स्थूलशरीर के साथ-साथ सूक्ष्मशरीर का भी परिवर्तन होता है। ऐसे ही सुषुप्तिअवस्था बाल्यावस्था में ज्यादा होती है , युवावस्थामें कम होती है और वृद्धावस्था में वह बहुत कम हो जाती है । अतः इससे कारणशरीर का परिवर्तन भी सिद्ध हो गया। दूसरी बात बाल्यावस्था और युवावस्था में नींद लेने पर शरीर और इन्द्रियों में जैसी ताजगी आती है वैसी ताजगी वृद्धावस्था में नींद लेने पर नहीं आती अर्थात् वृद्धावस्था में बाल्य और युवाअवस्था जैसा विश्राम नहीं मिलता। इस रीति से भी कारणशरीर का परिवर्तन सिद्ध होता है।जिसको दूसरा देवता , पशु , पक्षी आदि का शरीर मिलता है उसको उस शरीर में (देहाध्यास के कारण) मैं यही हूँ – ऐसा अनुभव होता है तो यह सूक्ष्मशरीर का परिवर्तन हो गया। ऐसे ही कारणशरीर में स्वभाव (प्रकृति) रहता है जिसको स्थूल दृष्टि से आदत कहते हैं। वह आदत देवता की और होती है तथा पशु-पक्षी आदि की और होती है तो यह कारणशरीर का परिवर्तन हो गया। अगर शरीरी (देही) का परिवर्तन होता तो अवस्थाओं के बदलने पर भी मैं वही हूँ  (टिप्पणी प0 51.2)  ऐसा ज्ञान नहीं होता परन्तु अवस्थाओं के बदलने पर भी जो पहले बालक था , जवान था वही मैं अब हूँ – ऐसा ज्ञान होता है। इससे सिद्ध होता है कि शरीरी में अर्थात् स्वयं में परिवर्तन नहीं हुआ है। यहाँ एक शंका हो सकती है कि स्थूलशरीर की अवस्थाओं के बदलने पर तो उनका ज्ञान होता है पर शरीरान्तर की प्राप्ति होने पर पहले के शरीर का ज्ञान क्यों नहीं होता ? पूर्वशरीर का ज्ञान न होने में कारण यह है कि मृत्यु और जन्म के समय बहुत ज्यादा कष्ट होता है। उस कष्ट के कारण बुद्धि में पूर्वजन्म की स्मृति नहीं रहती। जैसे लकवा मार जाने पर , अधिक वृद्धावस्था होने पर बुद्धि में पहले जैसा ज्ञान नहीं रहता । ऐसे ही मृत्युकाल में तथा जन्मकाल में बहुत बड़ा धक्का लगने पर पूर्वजन्म का ज्ञान नहीं रहता (टिप्पणी प0 51.3)  परन्तु जिसकी मृत्युमें ऐसा कष्ट नहीं होता अर्थात् शरीर की अवस्थान्तर की प्राप्ति की तरह अनायास ही देहान्तर की प्राप्ति हो जाती है उसकी बुद्धि में पूर्वजन्म की स्मृति रह सकती है  (टिप्पणी प0 51.4) । अब विचार करें कि जैसा ज्ञान अवस्थान्तर की प्राप्ति में होता है वैसा ज्ञान देहान्तर की प्राप्ति में नहीं होता परन्तु ‘मैं हूँ’ – इस प्रकार अपनी सत्ता का ज्ञान तो सबको रहता है। जैसे सुषुप्ति (गाढ़निद्रा) में अपना कुछ भी ज्ञान नहीं रहता पर जगने पर मनुष्य कहता है कि ऐसी गाढ़ नींद आयी कि मेरे को कुछ पता नहीं रहा तो कुछ पता नहीं रहा इसका ज्ञान तो है ही। सोने से पहले मैं जो था वही मैं जगने के बाद हूँ तो सुषुप्ति के समय भी मैं वही था । इस प्रकार अपनी सत्ता का ज्ञान अखण्डरूप से निरन्तर रहता है। अपनी सत्ता के अभाव का ज्ञान कभी किसी को नहीं होता। शरीरधारी की सत्ता का सद्भाव अखण्डरूप से रहता है तभी तो मुक्ति होती है और मुक्त-अवस्था में वह रहता है। हाँ , जीवन्मुक्त अवस्था में उसको शरीरान्तरों का ज्ञान भले ही न हो पर मैं तीनों शरीरों से अलग हूँ – ऐसा अनुभव तो होता ही है। ‘धीरस्तत्र न मुह्यति’ धीर वही है जिसको सत – असत का बोध हो गया है। ऐसा धीर मनुष्य उस विषय में कभी मोहित नहीं होता उसको कभी सन्देह नहीं होता। इसका अर्थ यह नहीं है कि उस धीर मनुष्य को देहान्तर की प्राप्ति होती है। ऊँच-नीच योनियों में जन्म होने का कारण गुणों का सङ्ग है और गुणों से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर धीर मनुष्य को देहान्तर की प्राप्ति हो ही नहीं सकती। यहाँ ‘तत्र’ पद का अर्थ देहान्तरप्राप्ति के विषय में नहीं है बल्कि देह-देही के विषय में है। तात्पर्य है कि देह क्या है ? देही क्या है ? परिवर्तनशील क्या है ? अपरिवर्तनशील क्या है ? अनित्य क्या है ? नित्य क्या है ? असत् क्या है ? सत् क्या है ? विकारी क्या है ? अविकारी क्या है ? इस विषयमें वह मोहित नहीं होता। देह और देही सर्वथा अलग हैं । इस विषय में उसको कभी मोह नहीं होता। उसको अपनी असङ्गता का अखण्ड ज्ञान रहता है। अनित्य वस्तु शरीर आदि को लेकर जो शोक होता है उसकी निवृत्ति के लिये कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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