The bHagavad Gita chapter 2

 

 

Previous      Menu       Next

 

सांख्ययोग ~ अध्याय दो

39-53 कर्मयोग विषय का उपदेश

 

 

The Bhagavad Gita Chapter 2

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥2 .52॥

 

यदा-जब; ते-तुम्हारा; मोह-मोह; कलिलम्-दलदल; बुद्धिः-बुद्धि; व्यतितरिष्यति-पार करना; तदा-तब; गन्तासि-तुम प्राप्त करोगे; निर्वेदम्-उदासीनता; श्रोतव्यस्य–सुनने योग्य; श्रुतस्य–सुने हुए को; च-और।

 

जब तुम्हारी बुद्धि मोह के दलदल को पार करेगी तब तुम सुने हुए और आगे सुनने में आने वाले इस लोक और परलोक के भोगों सबके प्रति उदासीन हो जाओगे।।2 .52।।

 

‘यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति’ – शरीर में अहंता और ममता करना तथा शरीरसम्बन्धी माता-पिता , भाई-भौजाई , स्त्री-पुत्र , वस्तु , पदार्थ आदि में ममता करना मोह है। कारण कि इन शरीरादि में अहंता-ममता है नहीं केवल अपनी मानी हुई है। अनुकूल पदार्थ , वस्तु , व्यक्ति , घटना आदि के प्राप्त होने पर प्रसन्न होना और प्रतिकूल पदार्थ , वस्तु , व्यक्ति आदि के प्राप्त होने पर उद्विग्न होना , संसार में , परिवार में विषमता , पक्षपात , मात्सर्य आदि विकार होना – यह सब का सब कलिल अर्थात् दलदल है। इस मोहरूपी दलदल में जब बुद्धि फँस जाती है तब मनुष्य किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। फिर उसे कुछ सूझता नहीं। यह स्वयं चेतन होता हुआ भी शरीरादि जड पदार्थों में अहंता-ममता करके उनके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है। पर वास्तव में यह जिन-जिन चीजों के साथ सम्बन्ध जोड़ता है वे चीजें इसके साथ सदा नहीं रह सकतीं और यह भी उनके साथ सदा नहीं रह सकता परन्तु मोह के कारण इसकी इस तरफ दृष्टि ही नहीं जाती बल्कि यह अनेक प्रकार के नये-नये सम्बन्ध जोड़कर संसार में अधिक से अधिक फँसता चला जाता है। जैसे कोई राहगीर अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँचने से पहले ही रास्ते में अपने डेरा लगाकर खेल-कूद , हँसी-दिल्लगी आदि में अपना समय बिता दे – ऐसे ही मनुष्य यहाँ के नाशवान पदार्थों का संग्रह करने में और उनसे सुख लेने में तथा व्यक्ति , परिवार आदि में ममता करके उनसे सुख लेने में लग गया। यही इसकी बुद्धि का मोहरूपी कलिल में फँसना है। हमें शरीर में अहंता-ममता करके तथा परिवार में ममता करके यहाँ थोड़े ही बैठे रहना है । इनमें ही फँसे रहकर अपनी वास्तविक उन्नति (कल्याण) से वञ्चित थोड़े ही रहना है । हमें तो इनमें न फँसकर अपना कल्याण करना है । ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाना ही बुद्धि का मोहरूपी दलदल से तरना है। कारण कि ऐसा दृढ़ विचार होने पर बुद्धि संसार के सम्बन्धों को लेकर अटकेगी नहीं , संसार में चिपकेगी नहीं। मोहरूपी कलिल से तरने के दो उपाय हैं विवेक और सेवा। विवेक (जिसका वर्णन 2। 11 30 में हुआ है) तेज होता है तो वह असत विषयों से अरुचि करा देता है। मन में दूसरों की सेवा करने की , दूसरों को सुख पहुँचाने की धुन लग जाय तो अपने सुख-आराम का त्याग करने की शक्ति आ जाती है। दूसरों को सुख पहुँचाने का भाव जितना तेज होगा उतना ही अपने सुख की इच्छा का त्याग होगा। जैसे शिष्य की गुरु के लिये , पुत्र की माता-पिता के लिये , नौकर की मालिक के लिये सुख पहुँचाने की इच्छा हो जाती है तो उनकी अपने सुख-आराम की इच्छा स्वतः सुगमता से मिट जाती है। ऐसे ही कर्मयोगीका संसारमात्र की सेवा करने का भाव हो जाता है तो उसकी अपने सुखभोग की इच्छा स्वतः मिट जाती है। विवेक-विचार के द्वारा अपनी भोगेच्छा को मिटानेमें थोड़ी कठिनता पड़ती है। कारण कि अगर विवेक-विचार अत्यन्त दृढ़ न हो तो वह तभी तक काम देता है जबतक भोग सामने नहीं आते। जब भोग सामने आते हैं तब साधक प्रायः उनको देखकर विचलित हो जाता है परन्तु जिसमें सेवाभाव होता है उसके सामने बढ़िया से बढ़िया भोग आने पर भी वह उस भोग को दूसरों की सेवा में लगा देता है। अतः उसकी अपने सुख-आराम की इच्छा सुगमता से मिट जाती है। इसलिये भगवान ने सांख्ययोग की अपेक्षा कर्मयोग को श्रेष्ठ (5। 2) , सुगम (5। 3) एवं जल्दी सिद्धि देने वाला (5। 6) बताया है। ‘तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च’ – मनुष्य ने जितने भोगों को सुन लिया है , भोग लिया है , अच्छी तरह से अनुभव कर लिया है , वे सब भोग यहाँ ‘श्रुतस्य’ पद के अन्तर्गत हैं। स्वर्गलोक , ब्रह्मलोक आदि के जितने भोग सुने जा सकते हैं , वे सब भोग यहाँ ‘श्रोतव्यस्य’ (टिप्पणी प0 90)  पद के अन्तर्गत हैं। जब तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदल को तर जायगी तब इन ‘श्रुत’ ,  ऐहलौकिक और  श्रोतव्य पारलौकिक भोगों से विषयों से तुझे वैराग्य हो जायगा। तात्पर्य है कि जब बुद्धि मोह कलिल को तर जाती है तब बुद्धि में तेजी का विवेक जाग्रत हो जाता है कि संसार प्रतिक्षण बदल रहा है और मैं वही रहता हूँ । अतः इस संसार से मेरे को शान्ति कैसे मिल सकती है ? मेरा अभाव कैसे मिट सकता है ? तब ‘श्रुत’ और ‘श्रोतव्य’ जितने विषय हैं उन सबसे स्वतः वैराग्य हो जाता है। यहाँ भगवान को ‘श्रुत’ के स्थान पर ‘भुक्त’ और ‘श्रोतव्य’ के स्थान पर ‘भोक्तव्य’ कहना चाहिये था परन्तु ऐसा न कहने का तात्पर्य है कि संसार में जो परोक्ष-अपरोक्ष विषयों का आकर्षण होता है वह सुनने से ही होता है। अतः इनमें सुनना ही मुख्य है। संसार से , विषयों से छूटने के लिये जहाँ ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग का वर्णन किया गया है वहाँ भी श्रवण को मुख्य बताया गया है। तात्पर्य है कि संसार में और परमात्मा में लगने में ‘सुनना’ ही मुख्य है। यहाँ ‘यदा’ और ‘तदा’ कहने का तात्पर्य है कि इन ‘श्रुत’ और ‘श्रोतव्य’ विषयों से इतने वर्षों में , इतने महीनों में और इतने दिनों में वैराग्य होगा – ऐसा कोई नियम नहीं है बल्कि जिस क्षण बुद्धि मोहकलिल को तर जायगी उसी क्षण  ‘श्रुत’ और ‘श्रोतव्य’ विषयों से , भोगों से वैराग्य हो जायगा। इसमें कोई देरी का काम नहीं है – स्वामी रामसुखदास जी 

 

Next

 

 

By spiritual talks

Welcome to the spiritual platform to find your true self, to recognize your soul purpose, to discover your life path, to acquire your inner wisdom, to obtain your mental tranquility.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!