The bHagavad Gita chapter 2

 

 

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सांख्ययोग ~ अध्याय दो

39-53 कर्मयोग विषय का उपदेश

 

The Bhagavad Gita Chapter 2

 

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।

समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥2 .53॥

 

श्रुतिविप्रतिपन्ना-वेदों के सकाम कर्मकाण्डों के खण्डों की ओर आकर्षित न होना; ते- तुम्हारा; यदा-जब; स्थास्यति-स्थिर हो जाएगा; निश्चला–अस्थिर; समाधौ-दिव्य चेतना; अचला-स्थिर; बुद्धिः-बुद्धि; तदा-तब; योगम् – योग; अवाप्स्यसि -तुम प्राप्त करोगे।

 

जब तुम्हारी बुद्धि का वेदों के अलंकारमयी खण्डों में आकर्षण समाप्त हो जाए और वह दिव्य चेतना में स्थिर हो जाए तब तुम पूर्ण योग की उच्च अवस्था प्राप्त कर लोगे। अर्थात जिस काल में शास्त्रीय मतभेदोंसे विचलित हुई तेरी बुद्धि निश्चल हो जायगी और परमात्मामें अचल हो जायगी, उस काल में तू योगको प्राप्त हो जायगा ।।2.53।।

 

लौकिक , मोहरूपी दलदल को तरने पर भी नाना प्रकार के शास्त्रीय मतभेदों को लेकर जो मोह होता है उसको तरने के लिये भगवान इस श्लोक में प्रेरण करते हैं। ‘श्रुतिविप्रतिपन्ना ते ৷৷. तदा योगमवाप्स्यसि’ – अर्जुन के मन में यह ‘श्रुतिविप्रतिपत्ति’ है कि अपने गुरुजनों का , अपने कुटुम्ब का नाश करना भी उचित नहीं है और अपने क्षात्रधर्म (युद्ध करने) का त्याग करना भी उचित नहीं है। एक तरफ तो कुटुम्ब की रक्षा हो और एक तरफ क्षात्रधर्म का पालन हो , इसमें अगर कुटुम्ब की रक्षा करें तो युद्ध नहीं होगा और युद्ध करें तो कुटुम्ब की रक्षा नहीं होगी । इन दोनों बातों में अर्जुन की ‘श्रुतिविप्रतिपत्ति’ है जिससे उनकी बुद्धि विचलित हो रही।  (टिप्पणी प0 91)  अतः भगवान शास्त्रीय मतभेदों में बुद्धि को निश्चल और परमात्मप्राप्ति के विषय में बुद्धि को अचल करने की प्रेरणा करते हैं। पहले तो साधक में इस बात को लेकर सन्देह होता है कि सांसारिक व्यवहार को ठीक किया जाय या परमात्मा की प्राप्ति की जाय । फिर उसका ऐसा निर्णय होता है कि मुझे तो केवल संसार की सेवा करनी है और संसार से लेना कुछ नहीं है। ऐसा निर्णय होते ही साधक की भोगों से उपरति होने लगती है , वैराग्य होने लगता है। ऐसा होने के बाद जब साधक परमात्मा की तरफ चलता है तब उसके सामने साध्य और साधन-विषयक तरह-तरह के शास्त्रीय मतभेद आते हैं। इससे मेरे को किस साध्य को स्वीकार करना चाहिये और किस साधनपद्धति से चलना चाहिये – इसका निर्णय करना बड़ा कठिन हो जाता है परन्तु जब साधक सत्सङ्ग के द्वारा अपनी रुचि , श्रद्धा-विश्वास और योग्यता का निर्णय कर लेता है अथवा निर्णय न हो सकने की दशा में भगवान के शरण होकर उनको पुकारता है तब भगवत्कृपा से उसकी बुद्धि निश्चल हो जाती है। दूसरी बात सम्पूर्ण शास्त्र , सम्प्रदाय आदि में जीव ,संसार और परमात्मा इन तीनों का ही अलग-अलग रूपों से वर्णन किया गया है। इसमें विचारपूर्वक देखा जाय तो जीव का स्वरूप चाहे जैसा हो पर जीव मैं हूँ – इसमें सब एकमत हैं और संसार का स्वरूप चाहे जैसा हो पर संसार को छोड़ना है इसमें सब एकमत हैं और परमात्मा का स्वरूप चाहे जैसा हो पर उसको प्राप्त करना है – इसमें सब एकमत हैं। ऐसा निर्णय कर लेने पर साधक की बुद्धि निश्चल हो जाती है। मेरे को केवल परमात्मा को ही प्राप्त करना है -ऐसा दृढ़ निश्चय होने से बुद्धि अचल हो जाती है। तब साधक सुगमतापूर्वक योग परमात्मा के साथ नित्ययोग को प्राप्त हो जाता है। शास्त्रीय निर्णय करने में अथवा अपने कल्याण के निश्चय में जितनी कमी रहती है , उतनी ही देरी लगती है परन्तु इन दोनों में जब बुद्धि निश्चल और अचल हो जाती है तब परमात्मा के साथ नित्ययोग का अनुभव हो जाता है। संसार से सम्बन्ध-विच्छेद करने के लिये बुद्धि निश्चल होनी चाहिये। जिसको छठे अध्याय के 23वें श्लोक में ‘दुःखसंयोगवियोगम्’ पद से कहा गया है और परमात्मा से सम्बन्ध जोड़ने के लिये बुद्धि अचल होनी चाहिये जिसको दूसरे अध्याय के 48वें श्लोक में ‘समत्वं योग उच्यते’ पदों से कहा गया है। यहाँ ‘तदा योगमवाप्स्यसि’ पदों से जो योग की प्राप्ति बतायी है , वह योग ऐसा नहीं है कि पहले परमात्मा से वियोग था , उस वियोग को मिटा दिया तो योग हो गया बल्कि  असत पदार्थों के साथ भूल से माने हुए सम्बन्ध का सर्वथा वियोग हो जाने का नाम ‘योग’ है अर्थात् मनुष्य की सदा से जो वास्तविक स्थिति (परमात्मा से नित्ययोग) है उस स्थिति में स्थित होना योग है। वह वास्तविक स्थिति ऐसी विलक्षण है कि उससे कभी वियोग होता ही नहीं , होना सम्भव ही नहीं। उसमें संयोग , वियोग , योग आदि कोई भी शब्द लागू नहीं होता। केवल असत से माने हुए सम्बन्ध के त्याग को ही यहाँ ‘योग’ संज्ञा दे दी है। वास्तव में यह योग नित्ययोग का वाचक है। इस नित्ययोग की अनुभूति कर्मों के (सेवा के) द्वारा की जाय तो कर्मयोग , विवेक-विचार के द्वारा की जाय तो ज्ञानयोग , प्रेम के द्वारा की जाय तो भक्तियोग , संसार के लय-चिन्तन के द्वारा की जाय तो लययोग , प्राणायाम के द्वारा की जाय तो हठयोग और यमनियमादि आठ अङ्गों के द्वारा की जाय तो अष्टाङ्गयोग कहलाता है। मोहकलिल और श्रुतिविप्रतिपत्ति दूर होने पर योग को प्राप्त हुए स्थिर बुद्धि वाले पुरुष के विषय में अर्जुन प्रश्न करते हैं।

 

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