The bHagavad Gita chapter 2

 

 

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सांख्ययोग ~ अध्याय दो

54-72 स्थिरबुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा

 

 

Chapter 2 Bhagavad Gita Sankhya Yog

 

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.58।।

 

यदा- जिस तरह ; संहरते-संकुचित कर लेता है या समेट लेता है; च-भी; अयम्- यह; कूर्म :-कछुआ; अङ्गानि–अंग; इव-वैसे ही; सर्वशः-पूरी तरह; इन्द्रियाणि-इन्द्रियाँ ;इन्द्रिय अर्थभ्यः-इन्द्रियविषयों से; तस्य-उसकी; प्रज्ञा-दिव्य चेतना; प्रतिष्ठिता-स्थित।

 

जिस तरह कछुआ अपने अङ्गोंको सब ओरसे समेट कर संकुचित कर के उन्हें खोल के भीतर लेता है, वैसे ही जब यह मनुष्य या  कर्मयोगी इन्द्रियोंके विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से समेट लेता या हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित हो जाती है और वह दिव्य ज्ञान में स्थिर हो जाता है।।।2.58।।

 

‘विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः रसवर्जम्’ – मनुष्य निराहार दो तर हसे होता है (1) अपनी इच्छा से भोजन का त्याग कर देना अथवा बीमारी आने से भोजन का त्याग हो जाना और (2) सम्पूर्ण विषयों का त्याग करके एकान्त में बैठना अर्थात् इन्द्रियों को विषयों से हटा लेना। यहाँ इन्द्रियों को विषयों से हटाने वाले साधक के लिये ही ‘निराहारस्य’ पद आया है। रोगी के मन में यह रहता है कि क्या करूँ ? शरीर में पदार्थों का सेवन करने की सामर्थ्य नहीं है । इसमें मेरी परवशता है परन्तु जब मैं ठीक हो जाऊँगा , शरीर में शक्ति आ जायगी , तब मैं पदार्थों का सेवन करूँगा। इस तरह उसके भीतर रसबुद्धि रहती है। ऐसे ही इन्द्रियों को विषयों से हटाने पर विषय तो निवृत्त हो जाते हैं पर साधक के भीतर विषयों में जो रसबुद्धि , सुखबुद्धि है – वह जल्दी निवृत्त नहीं होती। जिनका स्वाभाविक ही विषयों में राग नहीं है और जो तीव्र वैराग्यवान हैं उन साधकों की रसबुद्धि साधनावस्था में ही निवृत्त हो जाती है परन्तु जो तीव्र वैराग्य के बिना ही विचारपूर्वक साधन में लगे हुए हैं , उन्हीं साधकों के लिये यह कहा गया है कि विषयों का त्याग कर देने पर भी उनकी रसबुद्धि निवृत्त नहीं होती। ‘रसोऽप्यस्य परं दृष्टा निवर्तते’ – इस स्थितप्रज्ञ की रसबुद्धि परमात्मा का अनुभव हो जाने पर निवृत्त हो जाती है। रसबुद्धि निवृत्त होने से वह स्थितप्रज्ञ हो ही जाता है – यह नियम नहीं है परन्तु स्थितप्रज्ञ होने से रसबुद्धि नहीं रहती यह नियम है। ‘रसोऽप्यस्य’  पद से यह तात्पर्य निकलता है कि रसबुद्धि साधक की अहंता में अर्थात् मैं पन में रहती है। यही रसबुद्धि स्थूलरूप से राग का रूप धारण कर लेती है। अतः साधक को चाहिये कि वह अपनी अहंता से ही रस को निकाल दे कि मैं तो निष्काम हूँ । राग करना , कामना करना मेरा काम नहीं है। इस प्रकार निष्कामभाव आ जाने से अथवा निष्काम होने का उद्देश्य होने से रसबुद्धि नहीं रहती और परमात्मतत्त्व का अनुभव होने से रस की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है। रस की निवृत्ति न हो क्या आपत्ति है ? इसे आगे के श्लोकमें बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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