uddhav gita

 

 

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अथैकविंशोऽध्यायः 

गुण – दोष – व्यवस्था का स्वरूप और रहस्य

 

श्री भगवानुवाच

या एथान मत्पथो हित्वा भक्तिज्ञानक्रियात्मकान ।

क्षुद्रान कामांश्चत्नैः प्राणैर्जुषन्तः संसरन्ति ते ।। 1

भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं – प्रिय उद्धव ! मेरी प्राप्ति के तीन मार्ग हैं – भक्तियोग , ज्ञान योग और कर्म योग । जो इन्हें छोड़कर चंचल इन्द्रियों के द्वारा क्षुद्र भोग भोगते रहते हैं , वे बार – बार जन्म – मृत्यु रूप संसार के चक्कर मे भटकते रहते हैं । ।

 

स्वे स्वे धिकारे या निष्ठा स गुणः प्रकीर्तितः।

विपर्ययस्तु दोषः स्यादुभयोरेष निश्चयः ।। 2

अपने – अपने अधिकार के अनुसार धर्म में दृढ निष्ठा रखना ही गुण कहा गया है और इसके विपरीत अनाधिकार चेष्टा करना दोष है । तात्पर्य यह की गुण और दोष दोनों की व्यवस्था अधिकार के अनुसार की जाती है , किसी वस्तु के अनुसार नहीं ।। 2

 

शुद्धयशुद्धी विधीयेते समानेष्वपि वस्तुषु।

द्रव्यस्य विचिकित्सार्थं गुणदोषौ शुभाशुभौ।। 3

वस्तुओं के समान होने पर भी शुद्धि – अशुद्धि , गुण – दोष और शुभ – अशुभ आदि का जो विधान किया जाता है , उसका अभिप्राय यह है कि पदार्थ का ठीक – ठीक निरीक्षण – परीक्षण हो सके और उनमें संदेह उत्पन्न करके ही यह योग्य है कि अयोग्य , स्वाभाविक प्रवृत्ति को नियंत्रित – संकुचित किया जा सके ।। 3

 

धर्मार्थं व्यवहारार्थं यात्रार्थमिति चानघ ।

दर्शितोयं मयाऽचारो धर्म मुद्वहतां धुरं ।। 4

उनके द्वारा धर्म सम्पादन कर सके , समाज का व्यवहार ठीक – ठीक चला सके और अपने व्यक्तिगत जीवन के निर्वाह में भी सुविधा हो । इस से यह लाभ भी है कि मनुष्य अपनी वासना मूलक सहज प्रवृत्तियों के द्वारा इनके जाल में न फँस कर शास्त्रानुसार अपने जीवन को नियंत्रित और मन को वशीभूत कर लेता है । निष्पाप उद्धव ! यह आचार मैंने ही मनु आदि का रूप धारण कर के धर्म का भार ढोने वाले कर्म जडों के लिए उपदेश किया है । 4

 

भूम्यम्ब्वग्न्यनिलाकाशा भूतानां पंच धातवः ।

आब्रह्मस्थावरादीनां शारीरा आत्म संयुताः ।।5

पृथ्वी , जल , तेज , वायु , आकाश – ये पंचभूत ही ब्रह्मा से लेकर पर्वत – वृक्ष पर्यन्त सभी प्राणियों के शरीरों के मूल कारण हैं । इस तरह वे सब शरीर की दृष्टि से तो समान हैं ही , सबका आत्मा भी एक ही है । 5

 

वेदेन नाम रूपाणि विषमाणि समेष्वपि ।

धातुषूद्धव कल्प्यन्ते एतेषां स्वार्थ सिद्धये ।। 6

प्रिय उद्धव ! यद्यपि सबके शरीरों के पंच भूत समान हैं , फिर भी वेदों ने इनके वर्णाश्रम आदि अलग – अलग नाम और रूप इसलिए बना दिए हैं की ये अपनी वासना मूलक प्रवृत्तियों को संकुचित करके – नियंत्रित कर के धर्म , अर्थ , काम , मोक्ष – इन चारों पुरुषार्थों को सिद्ध कर सकें।। 6

 

देशकालादिभावानां वस्तूनां मम सत्तम ।

गुणदोषौ विधीयते नियमार्थं हि कर्मणां ।। 7

साधुश्रेष्ठ ! देश , काल , फल , निमित्त , अधिकारी और धान्य आदि वस्तुओं के गुण – दोषों का विधान भी मेरे द्वारा इसलिए किया गया है कि कर्मों में लोगों की उच्छृंखल प्रवृत्ति न हो, मर्यादा का भंग न होने पावे ।। 7

 

कृष्णसारोऽप्यसौवीर कीकटा संस्कृतेरिणम ।। 8

देशों में वह देश अपवित्र है , जिसमें कृष्णसार मृग न हो और जिसके निवासी ब्राह्मण भक्त न हों। कृष्णसार मृग के होने पर भी , केवल उन प्रदेशों को छोड़ कर जहाँ संत पुरुष रहते हैं , कीकट देश अपवित्र ही है । संस्कार रहित और ऊसर आदि स्थान भी अपवित्र होते हैं ।। 8

 

कर्मण्यो गुणवान कालो द्रवयतः स्वत एव च ।

यतो निवर्तते कर्म स दोषो ऽकर्मकः स्मृतः ।। 9

समय वही पवित्र है , जिसमें कर्म करने – योग्य सामग्री मिल सके तथा कर्म भी हो सके । जिसमें कर्म करने की सामग्री न मिले , आगंतुक दोषों से अथवा स्वाभाविक दोष के कारण जिसमें कर्म ही न हो सके , वह समय अशुद्ध है ।। 9

 

द्रव्यस्य शुद्धयशुद्धी च द्रव्येण वचनेन च ।

संस्कारेणाथ कालेन महत्त्वाल्पत याथवा ।।10

पदार्थों की शुद्धि और अशुद्धि द्रव्य , वचन , संस्कार , काल , महत्त्व अथवा अल्पत्व से भी होती है । ( जैसे कोई पात्र जल से शुद्ध और मूत्रादि से अशुद्ध हो जाता है । किसी वस्तु की शुद्धि अथवा अशुद्धि में शंका होने पर ब्राह्मणों के वचन से वह शुद्ध हो जाती है अन्यथा अशुद्ध रहती है । पुष्पादि जल छिड़कने से शुद्ध और सूंघने से अशुद्ध माने जाते हैं । तत्काल का पकाया हुआ अन्न शुद्ध और बासी अशुद्ध माना जाता है । )

 

शक्त्याशक्त्याथवा बुद्ध्या समृद्ध्या च यदात्मने।

अघम कुर्वन्ति ही यथा देशावस्थानुसारतः  ।। 11

शक्ति , अशक्ति , बुद्धि और वैभव के अनुसार भी पवित्रता और अपवित्रता की व्यवस्था होती है । उसमें भी स्थान और उपयोग करने वाले की आयु का विचार करते हुए ही अशुद्ध वस्तुओं के व्यवहार का दोष ठीक तरह से आँका जाता है । ( जैसे धनी – दरिद्र , बलवान – निर्बल , बुद्धिमान – मूर्ख , उपद्रव पूर्ण और सुखद देश तथा तरुण एवं वृद्धावस्था के भेद से शुद्धि और अशुद्धि की व्यवस्था में अंतर पड़ जाता है )

 

धान्य दार्व स्थितंतूनाम रस तैजस चर्मणां ।

कालवाय्वग्नि मृत्तोयैः पार्थिवानां युतायुतैः ।। 12

अनाज , लकड़ी , हाथी दांत आदि हड्डी , सूत , मधु , नमक , तेल , घी आदि रस , सोना – पारा आदि तैजस पदार्थ , चाम और घड़ा आदि मिटटी के बने पदार्थ समय पर अपने – आप हवा लगने से , आग में जलाने से , मिट्टी लगाने से अथवा जल में धोने से शुद्ध हो जाते हैं । देश , काल और अवस्था के अनुसार कहीं जल – मिट्टी आदि शोधक सामग्री के संयोग से शुद्धि करनी पड़ती है तो कहीं – कहीं एक – एक से भी शुद्धि हो जाती है ।12

 

अमेध्यलिप्तं यद् येन गंधम लेपम व्यपोहति ।

भजते प्रकृतिं तस्य तच्छौ चं तावदिष्यते ।। 13

यदि किसी वस्तु में कोई अशुद्ध पदार्थ लग गया हो तो छीलने से या मिट्टी आदि मलने से जब उस पदार्थ की गंध और लेप न रहे और वह वस्तु अपने पूर्व रूप में आ जाये , तब उसको शुद्ध समझना चाहिए ।।13

 

स्नानदानतपोऽवस्थावीर्य संस्कार कर्मभिः ।

मत्स्मृत्या चात्मनः शौचं शुद्धः कर्माचरेद द्विजः ।। 14

स्नान , दान , तपस्या , वय , सामर्थ्य , संस्कार , कर्म और मेरे स्मरण से चित्त की शुद्धि होती है । इनके द्वारा शुद्ध होकर ब्राह्मण , क्षत्रिय और वैश्य को विहित कर्मों का आचरण करना चाहिए ।। 14

 

मंत्रस्य च परिज्ञानं कर्मशुद्धिर्मदर्पणम ।

धर्मः सम्पद्यते षड्भिर धर्मस्तु विपर्ययः ।। 15

गुरुमुख से सुन कर भली – भाँति हृदयंगम कर लेने से मंत्र की और मुझे समर्पित कर देने से कर्म की शुद्धि होती है । उद्धव जी ! इस प्रकार देश , काल , पदार्थ , कर्ता , मंत्र और कर्म – इन छहों के शुद्ध होने से धर्म और अशुद्ध होने से अधर्म होता है ।

 

क्वचिद गुणोऽपि दोषः स्याद दोषोऽपि विधिना गुणः।

गुण दोषार्थ नियमस्तद्भिदामेव बाधते।। 16

कहीं – कहीं शास्त्रविधि से गुण – दोष हो जाता है और दोष गुण । एक ही वस्तु के विषय में किसी के लिए गुण और किसी के लिए दोष का विधान गुण और दोषों की वास्तविकता का खंडन कर देता है और इस  से यह निश्चय होता है कि गुण – दोष का यह भेद कल्पित है।। 16

 

समानकर्माचरणं पतितानां न पातकं ।

औत्पत्तिको गुणः संगो न शयानः पतत्यधः।। 17

जो लोग पतित हैं , वे पतितों का सा आचरण करते हैं तो उन्हें पाप नहीं लगता , जब कि श्रेष्ठ पुरुषों के लिए वह सर्वथा त्याज्य होता है । जैसे गृहस्थों के लिए स्वाभाविक होने के कारण अपनी पत्नी का संग पाप नहीं है ; परन्तु संन्यासी के लिए घोर पाप है । उद्धव जी ! बात तो यह है कि जो नीचे सोया हुआ है , वह गिरेगा कहाँ ? वैसे ही जो पहले से ही पतित हैं , उनका अब और पतन क्या होगा ? 17

 

यतो यतो निवर्तेत विमुच्येत ततस्ततः ।

एष धर्मो नृणाम क्षेमः शोकमोहभयापहः।। 18

जिन – जिन दोषों और गुणों से मनुष्य का चित्त उपरत हो जाता है , उन्हीं वस्तुओं के बंधन से वह मुक्त हो जाता है । मनुष्यों के लिए यह निवृत्तिरूप धर्म ही परम कल्याण का साधन है ; क्योंकि यही शोक , मोह और भय को मिटाने वाला है ।। 18

 

विषयेषु गुणाध्यासात पुंसः सङ्गस्ततो भवेत् ।

संगत्तत्र भवेत् कामः कामादेव कलिर्नृणां।। 19

उद्धव जी ! विषयों में कहीं भी गुणों का आरोप करने से उस वास्तु के प्रति आसक्ति हो जाती है । आसक्ति होने से उसे अपने पास रखने की कामना हो जाती है और इस कामना की पूर्ति में किसी प्रकार की बाधा पड़ने पर लोगों में परस्पर कलह होने लगता है ।। 19

 

कलेर्दुर्विषहः क्रोधस्तमस्त मनुवर्तते ।

तमसा ग्रस्यते पुंसश्चेतना व्यापिनी द्रुतम ।। 20

कलह से असह्य क्रोध की उत्पत्ति होती है और क्रोध के समय अपने हित – अहित का बोध नहीं रहता , अज्ञान छा जाता है । इस अज्ञान से शीघ्र ही मनुष्य की कार्याकार्य का निर्णय करने वाली व्यापक चेतना शक्ति लुप्त हो जाती है ।। 20

 

तया विरहितः साधो जन्तुः शून्याय कल्पते ।

ततोऽस्य स्वार्थ विभ्रंशों मूर्च्छितस्य मृतस्य च ।। 21

साधो ! चेतना – शक्ति अर्थात स्मृति के लुप्त हो जाने पर मनुष्य में मनुष्यता नहीं रह जाती , पशुता आ जाती है और वह शून्य के समान अस्तित्व हीन हो जाता है । अब उसकी अवस्था वैसी ही हो जाती है , जैसे कोई मूर्च्छित या मुर्दा हो । ऐसी स्थिति में न तो उसका स्वार्थ बनता है न तो परमार्थ ।।21

 

विषयाभिनिवेशन नात्मानं वेद नापरं।

वृक्ष जीविकया जीवन व्यर्थं भस्त्रेव यः श्वसन ।।22

विषयों का चिंतन करते – करते वह विषयरुप हो जाता है । उसका जीवन वृक्षों के समान जड हो जाता है । उसके शरीर में उसी प्रकार व्यर्थ श्वास चलता रहता है , जैसे लोहार की धौंकनी की हवा । उसे न अपना ज्ञान रहता है और न किसी दूसरे का । वह सर्वथा आत्म – वंचित हो जाता है ।। 22

 

फलश्रुतिरियं नृणां न श्रेयो रोचनं परं।

श्रेयो विवक्षया प्रोक्तं यथा भैषज्यरोचनं।। 23

उद्धव जी ! यह स्वर्गादिरूप फल का वर्णन करने वाली श्रुति मनुष्यों के लिए उन – उन लोकों को परम पुरुषार्थ नहीं बतलाती ; परन्तु बहिर्मुख पुरुषों के लिए अन्तः करण शुद्धि के द्वारा परम कल्याणमय मोक्ष की विवक्षा से ही कर्मों में रूचि उत्पन्न करने के लिए वैसा वर्णन करती है । जैसे बच्चों से औषधि में रूचि उत्पन्न करने के लिए रोचक वाक्य कहे जाते हैं । ( बेटा गिलोय का काढ़ा पी लो तो तुम्हारी छोटी बढ़ जाएगी )

 

उत्पत्त्यैव हि कामेषु प्राणेषु स्वजनेषु च ।

आसक्तमनसो मर्त्या आत्मनोऽनर्थहेतेषु ।। 24

इसमें संदेह नहीं की संसार के विषय भोगों में , प्राणों में और सगे – सम्बन्धियों में सभी मनुष्य जन्म से ही आसक्त हैं और उन वस्तुओं की आसक्ति उनकी आत्मोन्नति में बाधक और अनर्थ का कारण है ।। 24

 

न तानविदुषः स्वार्थं भ्राम्यतो वृजिनाध्वनि ।

कथं युञ्जयात पुनस्तेषु तांस्तमो विशतो बुधः ।। 25

वे अपने परम पुरुषार्थ को नहीं जानते , इसलिए स्वर्गादि का जो वर्णन मिलता है , वह ज्यों – का – त्यों सत्य है – ऐसा विश्वास करके देवादि योनियों में भटकते रहते हैं और फिर वृक्ष आदि योनियों के घोर अन्धकार में आ पड़ते हैं । ऐसी अवस्था में कोई भी विद्वान् अथवा वेद फिर से उन्हें उन्हीं विषयों में प्रवृत्त क्यों करेगा ।। 25

 

एवं व्यवसितं केचिदविज्ञाय कुबुद्धयः ।

फलश्रुतिं कुसुमितां न वेदज्ञा वदन्ति हि।। 26

दुर्बुद्धि लोग ( कर्मवादी ) वेदों का यह अभिप्राय न समझ कर कर्मासक्तिवश पुष्पों के समान स्वर्गादि लोकों का वर्णन देखते हैं और उन्हीं को परम फल मान कर भटक जाते हैं । परन्तु वेद वेत्ता लोग श्रुतियों का ऐसा तात्पर्य नहीं बतलाते ।। 26

 

कामिनः कृपणा लुब्धाः पुष्पेषु फलबुद्धयः ।

अग्निमुग्धा धूमतान्ताः स्वं लोकं न विदन्ति ते ।। 27

विषय – वासनाओं में फंसे हुए दीन – हीन , लोभी पुरुष रंग – बिरंगे पुष्पों के समान स्वर्गादि लोकों को ही सब कुछ समझ बैठते हैं , अग्नि के द्वारा सिद्ध होने वाले यज्ञ – यागादि कर्मों में ही मुग्ध हो जाते हैं । उन्हें अंत में देवलोक , पितृलोक आदि की ही प्राप्ति होती है । दूसरी ओर भटक जाने के कारण उन्हें अपने निजधाम आत्मपद का पता नहीं लगता ।। 27

 

न ते मामंग जानन्ति हृदिस्थं य इदं यतः  ।

उक्थशस्त्रा ह्यसुतृपो यथा नीहार चक्षुषः ।। 28

प्यारे उद्धव ! उनके पास साधना है तो केवल कर्म की और उसका कोई फल है तो इन्द्रियों की तृप्ति । उनकी आँखें धुंधली हो गई हैं ; इसी से वे यह बात नहीं जानते की जिस से इस जगत की उत्पत्ति हुई है , जो स्वयं इस जगत के रूप में है , वह परमात्मा मैं उनके ह्रदय में ही हूँ।। 28

 

ते मे मतमविज्ञाय परोक्षं विषयात्मकाः ।

हिंसायां यदि रागः स्याद यज्ञ एव न चोदना।। 29

हिंसाविहारा ह्यालब्धैः पशुभिः स्वसुखेच्छया ।

यजन्ते देवता यज्ञैः पितृभूतपतीन खलाः।। 30

यदि हिंसा और उसके फल मांस – भक्षण में राग ही हो , उसका त्याग न किया जा सकता हो , तो यज्ञ में ही करे – यह परिसंख्या विधि है , स्वाभाविक प्रवृत्ति का संकोच है , संध्या वन्दनादि के समान अपूर्व विधि नहीं हिअ । इस प्रकार मेरे परोक्ष अभिप्राय को न जानकार विषय लोलुप पुरुष हिंसा का खिलवाड़ खेलते हैं और दुष्टता वश अपनी इन्द्रियों की तृप्ति के लिए वध किये हुए पशुओं के मांस से यज्ञ करके देवता , पितर तथा भूतपतियों के यजन का ढोंग करते हैं ।। 29 – 30

 

स्वप्नोपमममुं लोकमसंतं श्रवणप्रियं ।

आशिषो हृदि संकल्प्य त्यजन्त्यर्थान यथा वणिक ।। 31

उद्धव जी ! स्वर्गादि परलोक स्वप्न के दृश्यों के समान हैं , वास्तव में वे असत हैं , केवल उनकी बातें सुनने में बहुत मीठी लगती हैं । सकाम पुरुष वहां के भोगों के लिए मन ही मन अनेकों प्रकार के संकल्प कर लेते हैं और जैसे व्यापारी अधिक लाभ की आशा से मूलधन को भी धन बैठता   है , वैसे ही वे सकाम यज्ञों द्वारा अपने धन का नाश करते हैं ।। 31

 

रजःसत्त्वतमोनिष्ठा रजःसत्त्वतमोजुषः ।

उपासत इन्द्रमुख्यान देवादीन न तथैव मां ।। 32

वे स्वयं रजोगुण , सत्त्वगुण या तमोगुण में स्थित रहते हैं और रजोगुणी , सत्त्वगुणी अथवा तमोगुणी इन्द्रादि देवताओं की उपासना करते हैं । 32

 

इष्ट्वेह देवता यगैर्गत्वा रंस्यामहे दिवि ।

तस्यान्त इह भूयास्म महाशाला महाकुलाः।। 33

एवं पुष्पितया वाचा व्याक्षिप्तमनसां नृणाम ।

मानिनाम चातिस्तब्धानां मद्वार्तापि न रोचते ।। 34

वे जब इस प्रकार की पुष्पिता वाणी – रंग – बिरंगी मीठी – मीठी बातें सुनते है कि ‘ हम लोग इस लोक में यज्ञों के द्वारा देवताओं का यजन करके स्वर्ग में जाएंगे और वहां दिव्य आनंद भोगेंगे , उसके बाद जब फिर हमारा जन्म होगा , तब हम बड़े कुलीन परिवार में पैदा होंगें , हमारे बड़े – बड़े महल होंगे और हमारा कुटुंब बहुत सुखी और बहुत बड़ा होगा ‘ तब उनका चित्त क्षुब्ध हो जाता है और उन हेकड़ी जताने वाले घमंडियों को मेरे सम्बन्ध की बातचीत भी अच्छी नहीं लगती ।। 33- 34

 

वेदा ब्रह्मात्म विषयास्त्रि काण्ड विषया इमे।

परोक्ष वादा ऋषयः परोक्षं मम च प्रियं ।। 35

उद्धव जी ! वेदों में तीन कांड हैं – कर्म , उपासना और ज्ञान । इन तीनों कांडों के द्वारा प्रतिपादित विषय है ब्रह्म और आत्मा की एकता, सभी मंत्र और मंत्र – दृष्टा ऋषि इस विषय को खोलकर नहीं , गुप्त भाव से बतलाते हैं और मुझे भी इस बात को गुप्त रूप से कहना ही अभीष्ट है ।। 35

 

शब्दब्रह्म सुदुर्बोधं प्राणेन्द्रिय मनोमयं ।

अनंतपारं गम्भीरं दुर्विगाह्यं समुद्रवत।। 36

वेदों का नाम है शब्दब्रह्म । वे मेरी मूर्त्ति हैं , इसी से उनका रहस्य समझना अत्यंत कठिन है । वह शब्द ब्रह्म परा , पश्यन्ति और मध्यमा वाणी के रूप में प्राण , मन और इन्द्रियमय है । समुद्र के समान सीमारहित और गहरा है । उसकी थाह लगाना अत्यंत कठिन है । ( इसी से जैमिनी आदि बड़े – बड़े विद्वान भी उसके तात्पर्य का ठीक – ठीक निर्णय नहीं कर पाते ) 36

 

मयोपबृंहितं भूम्ना ब्रह्मणानंत शक्तिना ।

भूतेषु घोष रूपेण बिसेषूर्णेव लक्ष्यते ।। 37

उद्धव ! मैं अनंत – शक्ति – संपन्न एवं स्वयं अनंत ब्रह्म हूँ । मैंने ही वेद वाणी का विस्तार किया है । जैसे कमल नाल में पतला सा सूत होता है , वैसे ही वह वेद वाणी प्राणियों के अन्तः – करण में अनाहत नाद के रूप में प्रकट होती है ।। 37

 

यथोर्णनाभिर्हृदयादूर्णामुद्वमते मुखात ।

आकाशाद घोषवान प्राणो मनसा स्पर्शरूपिणा।। 38

छन्दोमयोऽमृतमयः सहस्रपदवीं प्रभुः ।

ओमकाराद व्यंजित स्पर्श स्वरोष्मान्तः स्थभूषिताम ।। 39

विचित्रभाषाविततां छन्दोभिश्चितु रुत्तरैः ।

अनंत पारां बृहतीं सृजित्याक्षिपते स्वयं ।। 40

भगवान् हिरण्यगर्भ स्वयं वेदमूर्ति एवं अमृतमय हैं । उनकी उपाधि है प्राण और स्वयं अनाहत शब्द के द्वारा ही उनकी अभिव्यक्ति हुई है । जैसे मकड़ी अपने ह्रदय से मुख द्वारा जाला उगलती और फिर निगल लेती है , वैसे ही वे स्पर्श आदि वर्णों का संकल्प करने वाले मन रूप निमित्त कारण के द्वारा हृदयाकाश से अनंत अपार अनेकों मार्गों वाली वैखरी रूप वेद वाणी को स्वयं ही प्रकट करते हैं और फिर उसे अपने में लीन कर लेते हैं । वह वाणी हृद्गत सूक्ष्म ओंकार के द्वारा अभिव्यक्त स्पर्श ( ‘ क ‘ से लेकर ‘ म ‘ तक – 25 ) , स्वर ( ‘ अ ‘ से ‘ औ ‘ तक – 9 ) ऊष्मा ( श , ष , स , ह ) और अंतःस्थ ( य , र , ल , व् ) – इन वर्णों से विभूषित है । उसमें ऐसे छंद हैं , जिनमें उत्तरोत्तर चार – चार वर्ण बढ़ते जाते हैं और उनके द्वारा विचित्र भाषा के रूप में वह विस्तृत हुई है ) 38 – 40

 

गायत्र्युष्णि गनुष्टुप च बृहती पंक्तिरेव च ।

त्रिष्टुब्ज गत्यतिच्छन्दो हृृत्यष्टयति जगद विराट ।। 41

( चार – चार अधिक वर्णों वाले छंदों में से कुछ ये हैं – ) गायत्री , उष्णिक , अनुष्टुप , बृहती , पंक्ति , त्रिष्टुप , जगती , अतिच्छंद , अत्यष्टि , अति जगती और विराट ।। 41

 

किं विधत्ते किमाचष्टे किंनूद्य विकल्प्येत ।

इत्यस्या हृदयँ लोके नान्यो मद वेद कश्चन ।। 42

वह वेद वाणी कर्मकांड में क्या विधान करती हैं , उपासना काण्ड में किन देवताओं का वर्णन करती हैं और ज्ञान काण्ड में किन प्रतीतियों का अनुवाद कर के अनेकों प्रकार के विकल्प करती हैं – इन बातों को इस सम्बन्ध में श्रुति के रहस्य को मेरे अतिरिक्त और कोई नहीं जानता ।। 42

 

मां विधत्ते अ भिदत्ते मां विकल्प्या पोह्यते त्वहं ।

एतावान सर्व वेदार्थः शब्द आस्थाय मां भिदाद।

माया मात्र मनूद्यान्ते प्रतिषिध्य प्रसीदति ।। 43

मैं तुम्हे स्पष्ट बतला देता हूँ , सभी श्रुतियाँ कर्म काण्ड में मेरा ही विधान करती हैं , उपासना काण्ड में उपास्य देवताओं के रूप में वे मेरा ही वर्णन करती हैं और ज्ञान काण्ड में आकाशादि रूप से मुझ में ही अन्य वस्तुओं का आरोप कर के उनका निषेध कर देती हैं । सम्पूर्ण श्रुतियों का बस , इतना ही तात्पर्य हैं कि वे आश्रय मुझमे भेद का आरोप करती हैं , मायामात्र कह कर उसका अनुवाद करती हैं और अन्त में सबका निषेध कर के मुझमें ही शांत हो जाती हैं और केवल अधिष्ठान रूप से मैं ही शेष रह जाता हूँ ।43

 

इति श्रीमदभागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादश स्कन्धे एकविंशो ऽध्यायः ।। 21

 

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