कर्मयोग ~ अध्याय तीन
25-35 अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥3 .32॥
ये-जो; तु–लेकिन; एतत्-इस; अभ्यसूयन्तः-दोषारोपण; न-नहीं; अनुतिष्ठन्ति–अनुसरण करते हैं; मे-मेरा; मतम्-उपदेश; सर्वज्ञान-सभी प्रकार का ज्ञान; विमूढान्-भ्रमित; तान्–उन्हें; विद्धि-जानो; नष्टान्–नाश होता है; अचेतसः-विवेकहीन।
किन्तु जो मेरे उपदेशों में दोष ढूंढते हैं अर्थात मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं , उन ज्ञान से वंचित और विवेकहीन मूर्खों को तू मोहित , भ्रमित और नष्ट हुआ ही समझ अर्थात इन सिद्धान्तों की उपेक्षा करने से वे अपने विनाश का कारण बनते हैं॥3 .32॥
(“ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् ” 30वें श्लोक में वर्णित सिद्धान्त के अनुसार चलने वालों के लाभ का वर्णन 31वें श्लोक में करने के बाद इस सिद्धान्त के अनुसार न चलने वालों की पृथक्ता करने हेतु यहाँ ‘तु ‘पद का प्रयोग हुआ है। जैसे संसार में सभी स्वार्थी मनुष्य चाहते हैं कि हमें ही सब पदार्थ मिलें , हमें ही लाभ हो । ऐसे ही भगवान् भी चाहते हैं कि समस्त कर्मों को मेरे ही अर्पण किया जाय , मेरे को ही स्वामी माना जाय इस प्रकार मानना भगवान् पर दोषारोपण करना है। कामना के बिना संसार का कार्य कैसे चलेगा , ममता का सर्वथा त्याग तो हो ही नहीं सकता , रागद्वेषादि विकारों से रहित होना असम्भव है , इस प्रकार मानना भगवान के मत पर दोषारोपण करना है। भोग और संग्रह की इच्छा वाले जो मनुष्य शरीरादि पदार्थों को अपने और अपने लिये मानते हैं और समस्त कर्म अपने लिये ही करते हैं वे भगवान के मत के अनुसार नहीं चलते। “सर्वज्ञानविमूढान् तान् ” जो मनुष्य भगवान के मत का अनुसरण नहीं करते वे सब प्रकार के सांसारिक ज्ञानों (विद्याओं , कलाओं आदि) में मोहित रहते हैं। वे मोटर , हवाई जहाज , रेडियो , टेलीविजन आदि आविष्कारों में उनके कला-कौशल को जानने में तथा नये-नये आविष्कार करने में ही रचे-पचे रहते हैं। जल पर तैरने वाले मकान आदि बनाने , चित्रकारी करने आदि शिल्पकलाओं में , मन्त्र – तन्त्र – यन्त्र आदि की जानकारी प्राप्त करने में तथा उनके द्वारा विलक्षण-विलक्षण चमत्कार दिखाने में देश-विदेश की भाषाओं , लिपियों , रीति-रिवाजों , खान-पान आदि की जानकारी प्राप्त करने में ही वे लगे रहते हैं। जो कुछ है वह यही है ऐसा उनका निश्चय होता है (गीता 16। 11)। ऐसे लोगों को यहाँ सम्पूर्ण ज्ञानों में मोहित कहा गया है। “अचेतसः ” भगवान के मत का अनुसरण न करने वाले मनुष्यों में सत – असत , सार-असार , धर्म-अधर्म , बन्धन-मोक्ष आदि पारमार्थिक बातों का भी ज्ञान (विवेक) नहीं होता। उनमें चेतनता नहीं होती , वे पशु की तरह बेहोश रहते हैं। वे व्यर्थ आशा , व्यर्थ कर्म और व्यर्थ ज्ञान वाले विक्षिप्त-चित्त मूढ़ पुरुष होते हैं – “मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः” (गीता 9। 12)। विद्धि नष्टान् मनुष्य शरीर को पाकर भी जो भगवान के मत के अनुसार नहीं चलते उन मनुष्यों को नष्ट हुए ही समझना चाहिये। तात्पर्य है कि वे मनुष्य जन्म-मरण के चक्र में ही पड़े रहेंगे। मनुष्य जीवन में अन्तकाल तक मुक्ति की सम्भावना रहती है (गीता 8। 5)। अतः जो मनुष्य वर्तमान में भगवान के मत का अनुसरण नहीं करते , वे भी भविष्य में सत्संग आदि के प्रभाव से भगवान के मत का अनुसरण कर सकते हैं , जिससे उनकी मुक्ति हो सकती है परन्तु यदि उन मनुष्यों का भाव जैसा वर्तमान में है वैसा ही भविष्य में भी बना रहा तो उन्हें (भगवत्प्राप्ति से वञ्चित रह जाने के कारण ) नष्ट हुए ही समझना चाहिये। इसी कारण भगवान ने ऐसे मनुष्यों के लिये ‘नष्टान् विद्धि’ पदों का प्रयोग किया है। भगवान के मत का अनुसरण न करने वाला मनुष्य समस्त कर्म , राग अथवा द्वेषपूर्वक करता है। राग और द्वेष दोनों ही मनुष्य के महान शत्रु हैं – “तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ” (गीता 3। 34)। नाशवान् होने के कारण पदार्थ और कर्म तो सदा साथ नहीं रहते पर रागद्वेषपूर्वक कर्म करने से मनुष्य तादात्म्य , ममता और कामना से आबद्ध होकर बार-बार नीच योनियों और नरकों को प्राप्त होता रहता है। इसीलिये भगवान ने ऐसे मनुष्यों को नष्ट हुए ही समझने की बात कही है। 31वें और 32वें दोनों श्लोकों में भगवान ने कहा है कि मेरे सिद्धान्त के अनुसार चलने वाले मनुष्य कर्मबन्धन से मुक्त हो जाते हैं और न चलने वाले मनुष्यों का पतन हो जाता है। इससे यह तात्पर्य निकलता है कि मनुष्य भगवान को माने या न माने , इसमें भगवान का कोई आग्रह नहीं है परन्तु उसे भगवान के मत (सिद्धान्त ) का पालन अवश्य करना चाहिये इसमें भगवान की आज्ञा है। अगर वह ऐसा नहीं करेगा तो उसका पतन अवश्य हो जायगा। हाँ , यदि साधक भगवान को मानकर उनके मत का अनुष्ठान करे तो भगवान् उसे अपने-आपको दे देंगे परन्तु यदि भगवान को न मानकर केवल उनके मत का अनुष्ठान करे तो भगवान् उसका उद्धार कर देंगे। तात्पर्य यह है कि भगवान को मानने वाले को प्रेम की प्राप्ति और भगवान का मत मानने वाले को मुक्ति की प्राप्ति होती है। भगवान के मत के अनुसार कर्म न करनेसे मनुष्य का पतन हो जाता है ऐसा क्यों है ? इसका उत्तर भगवान् आगे के श्लोक में देते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )